'हर व्यक्ति को जानने का अधिकार': दिल्ली हाईकोर्ट ने सामग्री के आधार पर अनिवार्य प्रोडक्ट लेबलिंग के लिए दिशा-निर्देश की मांग करने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया

Update: 2021-11-12 02:55 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट ने यह देखते हुए कि प्रत्येक व्यक्ति को 'जानने का अधिकार' है, गुरुवार को एक याचिका पर नोटिस जारी किया। उक्त याचिका में खाद्य निर्माताओं को अपने प्रोडक्ट को उसमें इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री की प्रकृति के अनुसार लेबल करने के लिए अनिवार्य किया किए जाने को लेकर मौजूदा नियमों को सख्ती से लागू करने के लिए दिशा-निर्देश देने की मांग की गई है।

न्यायमूर्ति विपिन सांघी और न्यायमूर्ति जसमीत सिंह राम गौरक्षा दल नामक एक संगठन द्वारा दायर याचिका पर अधिवक्ता रजत अनेजा के माध्यम से सुनवाई कर रहे थे।

याचिका में सभी उपभोज्य वस्तुओं को न केवल उनके अवयवों के आधार पर बल्कि निर्माण प्रक्रियाओं के दौरान उपयोग की जाने वाली वस्तुओं के आधार पर भी लेबल करने की संभावना की जांच करने की मांग की गई।

कोर्ट ने कहा,

"इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति को जानने का अधिकार है जो संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत बोलने की स्वतंत्रता के अधिकार से उत्पन्न होता है।"

कोर्ट ने यह जोड़ा:

"यहां उठाए गए मुद्दों का अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित जीवन के अधिकार पर उतना ही असर पड़ता है जितना कि व्यक्ति को अपनी मान्यताओं को मानने और पालन करने का अधिकार है, जो संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत भी संरक्षित है।"

कोर्ट ने उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण और केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन से जवाब मांगा।

याचिकाकर्ता का मामला यह है कि न केवल मौजूदा नियमों और नीतियों का सख्ती से पालन करना आवश्यक है बल्कि उत्पादों को हरे, लाल और भूरे रंग के रूप में लेबल करने के लिए आवश्यक है। साथ ही यह खाद्य उत्पादों के निर्माताओं के लिए भी अनिवार्य है। इसके अलावा, सौंदर्य प्रसाधन, इत्र, घरेलू उपकरण, परिधान और सहायक उपकरण सहित ऐसे सभी उत्पादों को एक समान तरीके से लेबल करना भी जरूरी ताकि ग्राहकों को पता चल सके कि क्या ऐसे उत्पाद किसी जानवर के शरीर से प्राप्त घटकों या भागों का उपयोग करके निर्मित किए जाते हैं।

याचिकाकर्ता संगठन ने सभी खाद्य पदार्थों को शाकाहारी और मांसाहारी के रूप में लेबल करने की व्यवहार्यता की जांच के लिए एक विशेषज्ञ समिति के गठन की भी मांग की।

सुनवाई के दौरान, अदालत को बताया गया कि याचिकाकर्ता संगठन में 'नामधारी संप्रदाय' का पालन करने वाले लोग शामिल हैं, जो सख्त शाकाहार को मानते हैं।

तदनुसार, यह प्रस्तुत किया गया कि वे यह जानने के हकदार हैं कि सख्त शाकाहार का दावा करने वालों द्वारा बाजार में उपलब्ध उत्पादों का उपयोग उपभोग के लिए किया जा सकता है और खाने योग्य उत्पादों सहित बहुत से उत्पादों में या तो मांसाहारी सामग्री होती है या ऐसे में संसाधित होते हैं जिस तरह से उन्हें सख्ती से शाकाहारी के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता।

विशेष रूप से खाद्य सुरक्षा और मानक (पैकेजिंग और लैबेहंग) विनियम, 2011 के विनियम 2.2.2 (4) के तहत खाद्य व्यवसाय संचालकों को अपने उत्पादों की 'शाकाहारी' या 'मांसाहारी' प्रकृति के संबंध में हरे और भूरे रंग का लोगो प्रदर्शित करने के संबंध में एक घोषणा करने के लिए बाध्य किया जाता है।

याचिकाकर्ता ने व्हाइट शुगर के निर्माण सहित विभिन्न उदाहरणों का हवाला दिया, जिसके लिए बोन चार या प्राकृतिक कार्बन का उपयोग चीनी के रंग बदलने, परिष्कृत करने या सफेद करने के उद्देश्य से किया जाता है।

यह भी प्रस्तुत किया गया कि उपभोक्ताओं को जानने का अधिकार है ताकि वे उत्पादों के बारे में सूचित विकल्प बना सकें।

अदालत ने नौ दिसंबर को मामले को सूचीबद्ध करते हुए निर्देश दिया,

"इसलिए हम प्रतिवादियों को याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए मुद्दों की गंभीरता से जांच करने और तीन सप्ताह के भीतर जवाब देने का निर्देश देते हैं।"

केंद्र की ओर से पेश हुए एएसजी चेतन शर्मा ने याचिका में उठाई गई शिकायतों का समर्थन किया और कहा कि इस मुद्दे को तत्काल समाधान की आवश्यकता है।

कोर्ट ने कहा,

"इस आदेश की एक प्रति स्वास्थ्य मंत्रालय और उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय सहित भारत सरकार के संबंधित सचिव को भी भेजी जानी चाहिए।"

याचिका में कहा गया कि उत्पादों की सामग्री की प्रकृति के संबंध में किसी भी संकेत या लेबलिंग की अनुपस्थिति और ग्राहकों द्वारा इसके परिणामस्वरूप आकस्मिक उपयोग, उनके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।

याचिका में यह भी कहा गया कि जानवरों का शोषण करके अपना अंतिम रूप लेने वाले उत्पादों और वस्तुओं के उपयोग से बचने के लिए जागरूकता बढ़ रही है।

याचिका में कहा गया,

"यह केवल कुछ मुट्ठी भर लोगों तक ही सीमित नहीं है जो खुद को पर्यावरण या पशु प्रेमी के रूप में ब्रांडिंग कर रहे हैं, उत्पादों और वस्तुओं का उपयोग करने से बचने के लिए चुन रहे हैं, विलासिता और सुंदरता के लिए मानव लालच को संतुष्ट करने के लिए जानवरों का शोषण करते हैं, बल्कि हर दूसरे व्यक्ति जो मानते हैं कि जानवरों या वस्तुओं का दुरुपयोग करने के लिए मनुष्यों के स्वामित्व में नहीं है। वे (जानवर) जीवित हैं, सांस लेने वाले प्राणी हैं जो शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से पीड़ित हैं। उन्हें केवल मानवीय इच्छाओं को पूरा करने के लिए मौजूद उपयोगितावादी वस्तु के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।"

केस शीर्षक: राम गौ रक्षा दल बनाम यूओआई

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