लाॅ यूनिवर्सिटी में ऑनलाइन परीक्षा की अनुमति देने वाले बीसीआई के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका में राहत देने से इनकार, दिल्ली हाईकोर्ट ने दी याचिकाकर्ता को उचित फोरम में जाने की स्वतंत्रता
दिल्ली हाईकोर्ट ने उस याचिका में कोई भी राहत देने से इंकार कर दिया है,जिसमें बार काउंसिल ऑफ इंडिया की तरफ से जारी उन निर्देशों की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी,जो आॅनलाइन परीक्षाओं व कक्षाओं के संचालन के संबंध देश के सभी लाॅ विश्वविद्यालयों को जारी किए गए थे। इन निर्देशों में कहा गया था कि काॅलेजों को फिर से खोलने के बाद अंतिम वर्ष की लाॅ की परीक्षाएं ऑनलाइन मोड के माध्यम से या किसी अन्य उपयुक्त विधि के माध्यम से करवाई जाएं। वहीं मध्यवर्ती लाॅ की परीक्षाएं भी आयोजित की जाएं।
न्यायमूर्ति हेमा कोहली और न्यायमूर्ति सुब्रमणियम प्रसाद की खंडपीठ ने इस मामले में याचिकाकर्ता को याचिका वापिस लेने की अनुमति दे दी है। साथ ही यह स्वतंत्रता भी दे दी कि वह चाहे तो सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है।
आदेश लिखवाते हुए अदालत ने कहा कि-
'याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाई गई चिंताएँ उन मुद्दों को संदर्भित करती हैं जो अखिल भारतीय हैं। वहीं एक याचिकाकर्ता तो खुद विश्वविद्यालय का छात्र भी नहीं है। ऐसे में यह न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कैसे कर सकता है। इसलिए अदालत के पास यह अधिकार नहीं है कि वह इस याचिका पर उसके वर्तमान रूप में विचार कर सकें।'
बीसीआई द्वारा 27 मई को जारी किए गए दिशा-निर्देश व 9 जून को जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया था कि अंतिम वर्ष के कानून के छात्रों को ऑनलाइन परीक्षाओं में उपस्थित होने की अनुमति दी जाएगी। वहीं जो छात्र ऑनलाइन परीक्षाओं में उपस्थित होने में असमर्थ हैं,उनकी परीक्षाओं को आयोजित करने के लिए विश्वविद्यालय एक वैकल्पिक रणनीति अपनाने के लिए स्वतंत्रत होंगे।
मध्यवर्ती छात्रों के लिए इन दिशानिर्देशों में कहा गया था कि इन छात्रों को पिछले वर्षों की उपलब्धि और वर्तमान वर्ष की आंतरिक परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर पदोन्नत कर दिया जाए या अगले वर्ष में भेज दिया जाए। विश्वविद्यालयों को निर्देश दिया गया था कि वह कॉलेजों को फिर से खोलने के एक महीने के भीतर अंतिम सेमेस्टर की परीक्षाएं आयोजित करवाएं।
लॉ के छात्र पूरबयन चक्रवर्ती और विशाल त्रिपाठी की ओर से अधिवक्ता गुंजन सिंह और प्रज्ञा गंझू ने यह याचिका दायर की थी। इस याचिका में दिल्ली विश्वविद्यालय की तरफ से 27 जून को जारी अधिसूचना को भी चुनौती दी गई थी। जिसमें कहा गया था कि यूजी और पीजी के सभी प्रोग्राम के लिए ओपन बुक परीक्षा मोड की नई डेटशीट 3 जुलाई को परीक्षा शाखा द्वारा अधिसूचित कर दी जाएगी और 10 जुलाई से परीक्षाएं शुरू हो जाएंगी।
याचिका में उठाया गया रेखांकित मुद्दा यह था कि ''अधिकतम 25 प्रतिशत कानून के छात्रों के पास स्मार्ट फोन, कंप्यूटर और इंटरनेट कनेक्शन है''। इस संदर्भ में यह भी दलील दी गई थी कि असम में एक 16 वर्षीय छात्र ने आत्महत्या कर ली थी क्योंकि उसके पास स्मार्ट फोन नहीं था,इसलिए वह ऑनलाइन कक्षाओं और परीक्षाओं में भाग लेने में असमर्थ होने के कारण परेशान था।
याचिका में कहा गया था कि-
''मूल दलील यह है कि परीक्षा आयोजित करने के लिए दिया गया कोई भी दिशानिर्देश भेदभावपूर्ण होगा और 75 प्रतिशत गरीब छात्र इनमें भाग नहीं ले पाएंगे। जहां तक ऑनलाइन प्रशिक्षण की बात कही गई है,अगर यह मान भी लिया जाए कि वह आयोजित हुआ है,फिर भी कई ऐसे गरीब छात्र इन प्रशिक्षणों तक आसानी से अपनी पहुंच नहीं बना पाए हैं,जिनके पास न तो उपकरण है ओर न ही इन प्रशिक्षणों तक पहुँचने के लिए इंटरनेट की सुविधा।''
इसलिए याचिका में कहा गया था कि, ''शैक्षणिक संस्थानों के बंद होने के तुरंत बाद ऑनलाइन/इंटरनेट शिक्षा का जो तरीका एक विकल्प के रूप में अपनाया गया था,वह अनिवार्य रूप से समाज के समृद्ध और आरामदायक वर्ग तक सीमित है।''
याचिका में कहा गया था कि इस मामले में विकल्प यह है कि कोई परीक्षा आयोजित न करवाई जाए और पिछले सेमेस्टर में छात्रों द्वारा प्राप्त ग्रेड/ अंकों का औसत ले लिया जाए और इसी औसत के आधार पर ग्रेड /अंक प्रदान कर दिए जाएं। इस संबंध में याचिका में सीबीएसई की अधिसूचना का हवाला भी दिया गया था,जिसमें इसी तरह का कदम उठाया गया है।
कहा गया था कि-
''वर्तमान मामले में, यह सुझाव दिया जाता है कि छात्रों को ग्रेजुएट करने के लिए पहले के वर्षों में छात्रों के औसत प्रदर्शन या अंकों को आधार बना लिया जाए। इससे परीक्षाएं आयोजित करने की उस प्रणाली की आवश्यकता पूरी हो जाएगी,जो बड़े स्तर पर भेदभावपूर्ण साबित होगी।''
याचिका में विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित किए गए ऑनलाइन व्याख्यान या लेक्चर की भी आलोचना की गई थी।
''... तथाकथित व्याख्यान जो ऑनलाइन दिए गए थे,वह बेतरतीब ढंग से और आंशिक रूप से दिए गए थे। जिनमें से कई सारे व्याख्यान तो COVID19 के कारण दिए ही नहीं गए थे। बीसीआई चाहे तो इस मामले में सूचना मांग सकता है कि आॅनलाइन कितने व्याख्यान दिए जाने चाहिए थे और वास्तव में कितने व्याख्यान दिए गए हैं।''
याचिका में दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थिति पर भी प्रकाश डाला गया था,जहां पर छात्रों को केस सामग्री की हार्ड काॅपी भी प्रदान नहीं की गई हैं। वहीं विश्वविद्यालय के मिड-सेमेस्टर ब्रेक यानि छुट्टियों के दौरान ही लॉकडाउन की घोषणा हो गई थी। इस कारण कई छात्र अपने स्टडी मैटिरियल तक भी नहीं पहुंच पा रहे है क्योंकि वह अपने-अपने गृहनगरों में फंसे हुए हैं।
इसके अलावा याचिका में कहा गया था कि कई छात्रों के पास लैपटॉप, इंटरनेट, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के लिए उपयुक्त मोबाइल फोन, एक शांत जगह, प्रिंटर या अध्ययन सामग्री की हार्ड काॅपी प्राप्त करने के लिए पैसे नहीं है,इस कारण वह ऑनलाइन कक्षाओं तक अपनी पहुंच नहीं बना पा रहे हैं।
उपरोक्त के प्रकाश में याचिका में मांग की गई थी कि बीसीआई की तरफ से 27 मई को जारी दिशानिर्देशों के साथ-साथ 9 जून को जारी प्रेस विज्ञप्ति और 27 जून को दिल्ली विश्वविद्यालय की तरफ से जारी नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया जाए। साथ ही यह भी मांग की गई थी कि प्रतिवादियों को निर्देश दिया जाए कि वह मूल्यांकन की एक वैकल्पिक प्रणाली बनाए ताकि गरीब वर्ग के छात्रों के साथ पूर्ण न्याय किया जा सके और उनके साथ होने वाले किसी भी भेदभाव और नुकसान की किसी भी संभावना को खत्म किया जा सके।