सीआरपीसी | पीड़ित को बरी करने के आदेश के खिलाफ अपील करने के लिए अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं: पटना हाईकोर्ट
पटना हाईकोर्ट ने हाल ही में पाया कि अपराधी को बरी करने के आदेश के खिलाफ अपील करने का पूर्ण अधिकार है और शिकायतकर्ता की तरह अपील करने के लिए अनुमति लेने की भी आवश्यकता नहीं है।
जस्टिस खातिम रजा और जस्टिस चक्रधारी शरण सिंह की खंडपीठ ने यह टिप्पणी की:
"पीड़ित को आपराधी को बरी करने के आदेश के खिलाफ अपील करने का पूर्ण अधिकार है, इसलिए उसे आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 378(4) के तहत अपील करते समय "शिकायतकर्ता" के मामले में आवश्यक अपील करने के लिए अनुमति लेने की भी आवश्यकता नहीं है। हमने इस अपील पर विचार करते समय इस कानूनी सिद्धांत को ध्यान में रखा है।"
सेशन जज के फैसले के खिलाफ सीआरपीसी की धारा 372 के तहत अपील दायर की गई है, जिसमें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 323 और धारा 302 सपठित धारा 34 के तहत दंडनीय अपराधों के प्रतिवादियों को बरी कर दिया गया।
उक्त अपील मृतक की विधवा द्वारा की गई है, जिसका आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2008 की धारा 2 (डब्ल्यूए) के तहत अपील दायर करने का वैधानिक अधिकार है।
ट्रायल कोर्ट ने पाया कि आरोपी ऋषि कुमार के खिलाफ आईपीसी की धारा 304 भाग- II के तहत अपराध साबित हुआ, जिसे अचानक उकसाने पर कुदाल द्वारा एक वार किया गया। इसके लिए कोई सबूत नहीं है कि उसने दोबारा वार किया। मेडिकल रिपोर्ट भी इसकी पुष्टि करती है।
हाईकोर्ट ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 372 के तहत अपील दायर करने का अधिकार धारा 372 दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान को सम्मिलित करने के कारण अर्जित हुआ है, जो 31.12.2009 से प्रभावी 2009 के अधिनियम 05 द्वारा डाला गया। पीड़ित को न्यायालय द्वारा पारित किसी भी आदेश के खिलाफ अपील दायर करने का अधिकार प्रदान करना, अभियुक्त को बरी करना या किसी आरोपी को कम अपराध के लिए दोषी ठहराना या अपर्याप्त मुआवजा लगाना और उक्त प्रावधान के अनुसार, ऐसे न्यायालय के दोषसिद्धि के आदेश के विरुद्ध अपील हाईकोर्ट में दायर होगी।
कोर्ट ने कहा कि बरी करने के खिलाफ अपील पर विचार करने के लिए जो सिद्धांत हैं, वे सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों में अच्छी तरह से तय हैं।
कोर्ट ने रामानंद यादव बनाम प्रभुनाथ झा मामले का उल्लेख करते हुए:
"अपील न्यायालय पर उन सबूतों की पुनर्विचार करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है जिन पर बरी करने का आदेश आधारित है। आम तौर पर बरी करने के आदेश में हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा, क्योंकि अभियुक्त की निर्दोषता की धारणा को बरी करने से और मजबूत किया जाता है। अच्छी शुरुआत आपराधिक मामलों में न्याय प्रशासन की पहल के माध्यम से चलती है कि यदि मामले में जोड़े गए सबूतों पर दो विचार संभव हैं तो आरोपी के अपराध की ओर इशारा करते हुए और दूसरा उसकी बेगुनाही के उस दृष्टिकोण को देखा जाता है, जो अभियुक्त के अनुकूल अपनाया हुआ है।"
उपरोक्त सिद्धांत को लागू करते हुए अदालत का विचार था कि अभियोजन पक्ष प्रतिवादियों के खिलाफ उचित संदेह से परे आरोप स्थापित करने में विफल रहा है।
कोर्ट ने कहा,
"हमारी राय में ट्रायल कोर्ट ने पी.डब्ल्यू. 1 से 5 के साक्ष्य को सही ढंग से खारिज कर दिया। इसमें स्पष्ट असंगति है जैसा कि ट्रायल कोर्ट के फैसले के पैराग्राफ 12, 14, 15, 17 और 19 में देखा गया है। ट्रायल कोर्ट में दर्ज की गई रिपोर्ट किसी भी कानूनी दुर्बलता से ग्रस्त नहीं है, जिसके लिए इस न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता है।"
उपरोक्त के आलोक में अपील खारिज कर दी गई।
केस टाइटल: स्मिता कुमारी @ स्मिता देवी बनाम बिहार राज्य और अन्य
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