जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत भ्रष्ट आचरण करने के मामले में आपराधिक कार्रवाई नहीं बनतीः दिल्ली कोर्ट ने पीएम मोदी व अमित शाह के खिलाफ दायर आपराधिक मामला खारिज किया

Update: 2020-10-02 11:12 GMT

दिल्ली की एक अदालत ने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के खिलाफ वर्ष 2014 के आम चुनावों के दौरान कथित 'भ्रष्ट आचरण' करने व उसके बाद सार्वजनिक संपत्ति का दुरुपयोग करने के मामले में दायर एक आपराधिक शिकायत को खारिज कर दिया है।

राउज एवेन्यू डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में स्थित विशेष न्यायाधीश अजय कुमार कुहार की कोर्ट ने इस मामले में एक श्रीकांत प्रसाद की तरफ से दायर शिकायत को यह कहते हुए खारिज कर दिया है कि आरोपों में कोई ऐसा तत्व नहीं है,जिसके आधार पर ''आपराधिक क्षेत्राधिकार'' को लागू किया जा सकें।

कोर्ट ने कहा,

''शिकायत में यह कहा गया है कि वर्ष 2014 के आम चुनावों से पहले झूठे वादे किए गए थे, जो कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123 (2) के अनुसार एक भ्रष्ट व्यवहार के समान हैं। इसलिए मुझे इस मुद्दे पर और आगे बढ़ने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के पार्ट-I अध्याय- VIl की धारा 123 के तहत परिभाषित भ्रष्ट आचरण पर किसी आपराधिक कार्रवाई की जरूरत नहीं है। इस अधिनियम के तहत दंडनीय अपराधों का उल्लेख जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 125 से 136 में किया गया है।''

इसके अलावा कोर्ट ने कहा कि यह शिकायत इस आधार पर भी विफल रही है कि सीआरपीसी की धारा 197 या भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 के तहत केस चलाने से पूर्व कोई मंजूरी नहीं ली गई है।

अदालत ने कहा, ''इस तरह की मंजूरी के बिना, वर्तमान मामले में कोई संज्ञान नहीं लिया जा सकता है।''

मामले की पृष्ठभूमि

शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि 2014 में लोकसभा के लिए हुए आम चुनावों से पहले, श्री मोदी ने बेईमान इरादे के साथ एक गलत और कपटपूर्ण भाषण दिया, जिसमें कहा गया था कि भारत के प्रत्येक नागरिक को उसके खाते में 15 लाख रुपये मिलेंगे।

यह भी कहा गया था कि मतदाताओं को वोट देने के लिए प्रेरित करने के लिए उक्त वादा किया गया था और मंत्रियों का इसे पूरा करने का कोई इरादा नहीं था। इस प्रकार, यह वादा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123 के तहत एक 'भ्रष्ट आचरण' के समान है।

शिकायत में यह भी कहा गया था कि प्रधान मंत्री ने विभिन्न संगठनों व बीपीसीएल जैसी सरकारी कंपनियों के निजीकरण द्वारा उनको सौंपी गई सरकारी संपत्ति को गलत तरीके से भुनाया है। वहीं एयर इंडिया और अन्य सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की योजना बनाई जा रही है।

इस प्रकार, आईपीसी की धारा 420(धोखाधड़ी), धारा 406 (आपराधिक विश्वासघात) और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13 (ए) के तहत शिकायत दर्ज की गई थी।

कोर्ट का निष्कर्ष

सबसे पहले, अदालत ने कहा कि मंजूरी की अनुपस्थिति में यह शिकायत खारिज किए जाने योग्य है। साथ ही कहा कि,

'' जब एक सरकारी कर्मचारी द्वारा अपने आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन के दौरान कोई अपराध किया जाता है, तो अदालत अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत केस चलाने के लिए दी गई मंजूरी के बिना अपराध पर संज्ञान नहीं ले सकती है।

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत, विशेष रूप से धारा 13 के तहत किए गए अपराध के मामले में,कोई भी अदालत पीसी एक्ट की धारा 19 के तहत सक्षम प्राधिकारी द्वारा दी गई मंजूरी के बिना उक्त अपराध पर संज्ञान नहीं ले सकती है।''

उत्तर प्रदेश बनाम पारस नाथ सिंह (2009) 6 एससीसी 372 मामले में दिए गए फैसले पर भरोसा जताया गया।

जहां तक​ झूठे वादे के आरोपों का सवाल है तो कोर्ट ने कहा कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अनुसार कोई आपराधिक कार्रवाई नहीं बनती है।

अंत में, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का निजीकरण के माध्यम से दुरुपयोग करने के आरोपों पर, अदालत ने कहा कि '' इस मामले में आपराधिक इरादे दर्शाने के लिए कोई सामग्री व तथ्य'' नहीं है।

कोर्ट ने कहा कि, ''यह सभी सत्ता में आई सरकार के नीतिगत निर्णय हैं,जिनमें कोर्ट आपराधिक क्षेत्राधिकार के तहत हस्तक्षेप नहीं कर सकती है।''

इसके अलावा, न्यायालय की यह भी राय थी कि अपराध के संबंध सहायक साक्ष्य के बिना सिर्फ शिकायत में लगाए गए आरोपों के आधार पर कोई भी प्रतिकूल कार्रवाई उचित नहीं होगी।

जबकि शिकायतकर्ता ने प्रस्तुत किया था कि उसके पास कोई सबूत नहीं है, लेकिन अदालत सीआरपीसी की धारा 202 के तहत जांच करवाने के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकती है। परंतु कोर्ट ने इस आग्रह को ठुकरा दिया और उसके लिए निम्नलिखित कारण दिया -

''सीआरपीसी की धारा 202 के चरण तक पहुंचने के लिए अपराध पर संज्ञान लिया जाना आवश्यक है। लेकिन वर्तमान मामले में, मंजूरी के बिना, कोई संज्ञान नहीं लिया जा सकता है।''

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