'जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड द्वारा एक किशोर को दोषी ठहराया जाना रोजगार के लिए अयोग्यता नहीं है, इसके प्रकटीकरण की आवश्यकता उसकी निजता, अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है': इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि आपराधिक अभियोजन का सामना किए एक किशोर की नियुक्ति को लेकर यह राय बनाना कि वह इस नियुक्ति के लिए एक उम्मीदवार के रूप में आयोग्य है, यह मनमाना, अवैध और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।
कोर्ट ने इसके अलावा कहा कि नियुक्त करने वाला व्यक्ति किसी भी उम्मीदवार को एक किशोर के रूप में सामना किए गए आपराधिक अभियोजन के विवरण का प्रकटीकरण करने के लिए नहीं कह सकता है।
कोर्ट ने यह भी कहा है कि एक किशोर के रूप में सामना किए गए आपराधिक मुकदमों के विवरण का प्रकटीकरण करने की आवश्यकता निजता के अधिकार और अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत बच्चे की प्रतिष्ठा के अधिकार का उल्लंघन है।
न्यायमूर्ति अजय भनोट की एकल न्यायाधीश पीठ ने कहा कि,
"जुवेनाइल जस्टिस एक्ट, 2000 के तहत किशोर न्याय बोर्ड द्वारा दोषी ठहराया जाना रोजगार के लिए अयोग्यता नहीं है। आपराधिक अभियोजन का सामना किए एक किशोर की नियुक्ति को लेकर यह राय बनाना कि नियुक्ति हेतु उम्मीदवार आयोग्य है, के लिए एक प्रासंगिक तथ्य नहीं है। इस तरह के अभियोजन को नियुक्ति से इनकार करने का आधार नहीं बनाया जा सकता है। अप्रासंगिक तथ्यों का प्रकटीकरण नहीं करना जानबूझकर या भौतिक तथ्यों का जानबूझकर छिपाना नहीं है। इसलिए ऐसे आपराधिक मामलों का प्रकटीकरण न करना उक्त व्यक्ति की नियुक्ति को अमान्य नहीं कर सकता है।"
कोर्ट ने यह टिप्पणी प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी (पीएसी), एटा के कमांडेंट द्वारा पारित 3 सितंबर 2020 के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका में पर की गई, जिसमें याचिकाकर्ता को सक्षम प्राधिकारी द्वारा कांस्टेबल के पद के लिए उपयुक्त नहीं पाया गया था।
यह याचिकाकर्ता का मामला है कि प्राधिकरण ने तथ्य और कानून को नजरअंदाज करते हुए इसलिए पद के लिए उपयुक्त नहीं पाया कि याचिकाकर्ता जब किशोर था तब उसे जेजे बोर्ड द्वारा दोषी ठहराया गया था। इसलिए यह तर्क दिया गया कि यह आदेश मनमाना, अवैध और याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकारों के रूप में अनुच्छेद 14, 16 और 21 का उल्लंघन करता है।
दूसरी ओर, यह राज्य का मामला है कि याचिकाकर्ता का आपराधिक मामला लंबित है और मामले को अटैचमेंट फॉर्म में दबा दिया गया और इसलिए यह उम्मीदवार पीएसी जैसी अनुशासित बल में नियुक्ति के लिए उपयुक्त नहीं है।
कोर्ट ने देखा कि याचिकाकर्ता को जब किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के तहत जेजे बोर्ड ने दोषी ठहराया था तब उसकी उम्र 15 साल 8 महीने 12 दिन था।
कोर्ट ने इसके अलावा निम्नलिखित मुद्दों पर ध्यान दिया;
1. क्या याचिकाकर्ता को लोक अदालत के आदेश दिनांक 05.11.2019 द्वारा मामला अपराध संख्या 104/2011 में उत्तर प्रदेश की सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम,1998 की धारा 3 और धारा 4 के तहत अभियोजन और याचिकाकर्ता को दोषी ठहराए जाने के आधार पर नियुक्ति से वंचित किया जा सकता है।
2. क्या प्रतिवादी प्राधिकारियों द्वारा याचिकाकर्ता को एक किशोर के रूप में सामना किए गए आपराधिक अभियोजन के विवरण को सत्यापन प्रपत्र में प्रकट करने की आवश्यकता कानून के तहत गलत है?
कोर्ट का अवलोकन
कोर्ट ने राजीव कुमार बनाम यू.पी. राज्य और एक अन्य 2019(4) ADJ 316 मामले में कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा जताया। इसमें कोर्ट ने कहा था कि मौलिक अधिकार के रूप में एक बच्चे की प्रतिष्ठा के अधिकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 से प्रवाहित किया गया है। इसके अलावा केएस पुट्टुस्वामी बनाम भारत संघ के प्रसिद्ध फैसले पर भी भरोसा जताया, जिसमें निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया गया है जो बच्चों पर भी लागू होता है।
कोर्ट ने किशोर न्याय अधिनियम 2015 के पहलुओं और इस विषय पर अन्य प्रासंगिक निर्णयों को विस्तार से देखते हुए कहा कि,
"किशोर और वयस्क अलग-अलग वर्ग में विभाजित हैं। सार्वजनिक पद पर नियुक्ति के लिए उम्मीदवार की उपयुक्तता के निर्धारण के लिए एक वयस्क का आपराधिक मुकदमा एक वैध आधार है। हालांकि किशोरों का अभियोजन एक अलग वर्ग में आता है। इसलिए आपराधिक अभियोजन का सामना किए एक किशोर की नियुक्ति को लेकर यह राय बनाना कि वह इस नियुक्ति के लिए एक उम्मीदवार के रूप में आयोग्य है, यह मनमाना, अवैध और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।"
कोर्ट ने आगे कहा कि,
" एक किशोर के रूप में सामना किए गए आपराधिक मुकदमों के विवरण का प्रकटीकरण करने की आवश्यकता निजता के अधिकार और अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत बच्चे की प्रतिष्ठा के अधिकार का उल्लंघन है। यह जुवेनाइल जस्टिस एक्ट,2000 (समय-समय पर संशोधित) द्वारा सुनिश्चित बच्चे के संरक्षण को भी नकारता है। इसलिए नियुक्ति करने वाला किसी भी उम्मीदवार को किशोर के रूप में सामना किए गए आपराधिक अभियोजन के विवरण का प्रकटीकरण करने के लिए नहीं कह सकता है।"
अदालत ने यह भी कहा कि उम्मीदवार एक किशोर के रूप में सामना किए गए आपराधिक अभियोजन के बारे में जानकारी देने के लिए इनकार कर सकता है और उम्मीदवार द्वारा इस तरह की जानकारी देने से इनकार करना झूठ बोलना या तथ्यों का जानबूझकर छुपाना नहीं माना जाएगा।
कोर्ट ने उपरोक्त टिप्पणियों के साथ स्पष्ट किया कि ये अवलोकन किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के दायरे से बाहर के मामलों और 16 से 18 वर्ष के आयु वर्ग के व्यक्तियों द्वारा किए गए जघन्य अपराधों के मामलों में भी लागू नहीं होंगे।
कोर्ट ने शुरुआत में अवलोकन किया कि,
"केवल इसलिए कि याचिकाकर्ता ने निचली अदालत के समक्ष किशोरता की याचिका नहीं डाली, उसे कानून द्वारा प्रदत्त सुरक्षा से वंचित नहीं करता है। यह अपराध कोई जघन्य अपराध नहीं है। इसके अलावा आक्षेपित आदेश में यह ध्यान नहीं देखा गया है कि पुलिस अधिकारियों की बेदाग रिपोर्ट पर विचार करने पर देखा जा सकता है कि याचिकाकर्ता की अच्छी सामाजिक प्रतिष्ठा है।"
कोर्ट ने मामले के तथ्यों के आधार पर कहा कि लोक अदालत द्वारा याचिकाकर्ता पर मुकदमा चलाने और जुर्माना लगाने से पीएसी द्वारा उसे नियुक्ति से इनकार करने का आधार नहीं हो सकता है।
कोर्ट ने कहा कि,
"उक्त कार्यवाही याचिकाकर्ता की नियुक्ति के प्रयोजनों के लिए प्रासंगिक मानदंड नहीं हैं। मुझे लगता है कि प्रतिवादी अधिकारियों द्वारा किसी भी उम्मीदवार को एक किशोर के रूप में सामना किए गए आपराधिक अभियोजन के विवरण का प्रकटीकरण करने के लिए कहना कानून के विपरीत है।"
कोर्ट ने कहा कि सक्षम प्राधिकारी द्वारा याचिकाकर्ता को नियुक्ति के लिए अनुपयुक्त ठहराने के लिए कानून का गलत तरीके से इस्तेमाल किया है। कोर्ट ने आगे कहा कि पारित आदेश मनमाना और गैरकानूनी है और इसलिए पारित आदेश को पलटा जाता है।
केस का शीर्षक: अनुज कुमार बनाम यूपी राज्य