सिविल विवाद, जिसमें कोई आपराधिक तत्त्व शामिल नहीं है, उसे आपराधिक मुकदमें के माध्यम से निपटाने के प्रयासों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए: उड़ीसा हाईकोर्ट

Update: 2020-07-16 09:38 GMT

Orissa High Court

उड़ीसा हाईकोर्ट ने सोमवार (13 जुलाई) को जमानत आवेदन के एक मामले में यह टिपण्णी की कि एक सिविल विवाद को, जिसमें कोई आपराधिक अपराध शामिल नहीं है, आपराधिक मुकदमा चलाने के माध्यम से निपटाने के किसी भी प्रयास को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति एस. के. पाणिग्रही की एकल पीठ ने यह टिपण्णी उस मामले में की जिसमे याचिकाकर्ता पर एक सह-ग्रामीण के साथ धोखाधड़ी करने का आरोप था जिसके साथ उसका 15 साल से व्यापारिक संबंध था।

क्या था यह मामला?

दर्ज एफ.आई.आर. के अनुसार मामला यह है कि शिकायतकर्ता (Complainant) ने 28-जनवरी-2020 को अपनी शिकायत में यह आरोप लगाया है कि याचिकाकर्ता (Petitioner) के पास, शिकायतकर्ता का कथित रूप से रु 64,00,000/- (चौंसठ लाख रुपये) बकाया था।

याचिकाकर्ता और शिकायतकर्ता सह-ग्रामीण हैं और वे पिछले 15 वर्षों से व्यावसायिक संबंध में थे, और उनके बीच के सम्बन्ध अच्छे थे। शिकायतकर्ता, पिछले डेढ़ दशक से याचिकाकर्ता को घी और वनस्पति की आपूर्ति करता था।

यह आरोप लगाया गया है कि शिकायतकर्ता ने याचिकाकर्ता को "स्मृति निवास" में भुवनेश्वर में एक फ्लैट खरीदने के लिए अत्यधिक विश्वास के साथ भुगतान किया था कि भविष्य में उक्त फ्लैट को याचिकाकर्ता के पास लंबित बकाया राशि के निपटान के एवज में दिया जायेगा।

यह आगे आरोप लगाया गया कि शिकायतकर्ता ने याचिकाकर्ता से टेलीफोन पर अनुरोध किया है कि या तो वह बकाया राशि का निपटान करे या उसके नाम पर फ्लैट हस्तांतरित करे।

इसके बजाय, याचिकाकर्ता पर आरोप है कि उसने शिकायतकर्ता के साथ दुर्व्यवहार किया और उसे जान से मारने की धमकी दी। आरोप यह भी प्रदर्शित करते हैं कि 22 जनवरी, 2020 को शाम 5:30 बजे, याचिकाकर्ता और शिकायतकर्ता ने चंदिखोल स्थित एक पेट्रोल पंप के पास याचिकाकर्ता के पास बकाया राशि के बारे में चर्चा करना शुरू कर दिया।

एफआईआर के अनुसार, याचिकाकर्ता ने शिकायतकर्ता को अपमानजनक भाषाओं के बारे में डांट-फटकार लगाई थी और उसके साथ मारपीट की, जिसके चलते उसे चोटें आयीं। याचिकाकर्ता 12 फरवरी, 2020 के बाद से हिरासत में है और तब से याचिकाकर्ता और शिकायतकर्ता के बीच लेनदेन भी रुका हुआ है।

याचिकाकर्ता की दलील

याचिकाकर्ता के लिए पेश वकील श्री बिभु प्रसाद दास ने याचिकाकर्ता का पक्ष रखते हुए कहा कि शिकायतकर्ता ने जानबूझकर याचिकाकर्ता के खिलाफ एक झूठा मामला दर्ज किया है, जबकि याचिकाकर्ता ने शिकायतकर्ता के साथ कभी दुर्व्यवहार या मारपीट नहीं की थी और इतने लंबे समय तक उनके बीच बहुत सौहार्दपूर्ण व्यापारिक संबंध थे। याचिकाकर्ता, शिकायतकर्ता से घी और बनस्पति खरीद रहा था जिससे करोड़ों रुपये का कारोबार हुआ।

याचिकाकर्ता के वकील ने आगे यह कहा कि फ्लैट खरीदने के उद्देश्य से शिकायतकर्ता ने कभी भी याचिकाकर्ता को कुछ भी रूपये नहीं दिए थे, बल्कि याचिकाकर्ता ने अपनी मेहनत की कमाई से एक फ्लैट खरीदा था, जहां वह निवास कर रहा था और शिकायतकर्ता उक्त फ्लैट पर नजर गड़ाए हुए था। वह यह चाहता था कि उक्त फ्लैट को उसके नाम पर हस्तांतरित कर दिया जाए।

जब याचिकाकर्ता ने उक्त फ्लैट को स्थानांतरित करने के लिए अपना झुकाव नहीं दिखाया, तो शिकायतकर्ता ने जानबूझकर याचिकाकर्ता को इस झूठे और मनगढ़ंत मामले में उलझा दिया।

यह भी दावा किया गया कि लोहे की रॉड के माध्यम से शिकायतकर्ता पर हमला करने का आरोप पूरी तरह से गलत और मनगढ़ंत है। यह याचिकाकर्ता के खिलाफ आपराधिक मामले को दर्ज करने और जानबूझकर उसे परेशान करने के प्रयास के अलावा और कुछ नहीं है।

अदालत का मत

अदालत ने अपने सीमित परिक्षण में यह पाया कि शिकायतकर्ता द्वारा पेश दस्तावेज, फ्लैट को हस्तांतरित करने के उद्देश्य से याचिकाकर्ता को पैसे के भुगतान के संबंध में कोई साक्ष्य नहीं दिखाते हैं। इस प्रकार, ये दस्तावेज शिकायतकर्ता की सहायता करने में विफल रहे, क्योंकि यह पैसे के लेनदेन के बारे में कुछ भी नहीं दर्शाते हैं कि शिकायतकर्ता द्वारा याचिकाकर्ता को उक्त फ्लैट को हस्तांतरित करने के उद्देश्य से किया गया।

अदालत ने आगे मुख्य रूप से कहा कि

"तात्कालिक मामला, प्रथम दृष्टया, पार्टियों के बीच एक सिविल विवाद से पैदा हुआ है और इसे आपराधिक मामले का रंग दिया गया था। बेशक, मामले में ट्रायल एक विभिन्न संस्करण सामने ला सकता है। शिकायतकर्ता द्वारा आपराधिक मामले को गति में लाने के लिए धारा 420, 417, आई.पी.सी. के इस्तेमाल पर आते हुए, यह ज्यादा से ज्यादा, ब्रीच ऑफ़ कॉन्ट्रैक्ट (संविदा भंग) का मामला लगता है, लेकिन प्रथम दृष्टया धोखे का तत्व सामने नहीं आता है।

मौजूदा मामले में प्रथम दृष्टया, एक सिविल विवाद के तत्त्व हैं, जिसके कई समाधान इस अदालत के बाहर उपलब्ध हैं। फिर भी, तात्कालिक मामले की सच्चाई का पता ट्रायल के स्तर पर लगाया जा सकता है। एक प्रमुख कारण जिसके चलते लोग नागरिक कार्यवाही के विपरीत आपराधिक मुकदमेबाजी का विकल्प चुनते हैं, वह यह है कि आपराधिक कार्यवाही त्वरित राहत प्रदान करती है जो अक्सर मुकदमेबाजों को झूठी कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करती है।"

अदालत ने यह भी देखा कि

"वादियों के बीच यह प्रवृत्ति बढ़ रही है कि नागरिक मामलों को आपराधिक मामलों का रंग दिया जाए जिससे मामला जल्दी सुलझ जाये। यह अदालत, नियमित रूप से आपराधिक कानून मशीनरी का उपयोग करके सिविल विवादों को निपटाने की मांग करने वाले वादियों द्वारा कानून के दुरुपयोग के बढ़ते मामलों की चिंताजनक प्रवृत्ति देख रही है।

यह जरूरी है कि कुछ संविदात्मक विवादों या अन्य प्रकार के नागरिक विवादों के मामलों में जिनका अपराधीकरण करने की मांग की जाती है, उन्हें एफआईआर दर्ज करने/दर्ज करने से पहले एक अनिवार्य प्रारंभिक जांच करने की प्रक्रिया का पालन करना चाहिए। प्रारंभिक जांच करने का यह सुरक्षित तरीका, विवादों के अपराधीकरण को रोक सकता है जो प्रकृति में सिविल हैं।"

अदालत ने इस बात का भी जिक्र किया कि फ़र्ज़ी मामले दर्ज करने के प्रयासों को रोक दिया जाना चाहिए ताकि आपराधिक अदालतों का ध्यान अपराधों पर केंद्रित रहे, जो बड़े पैमाने पर समाज को प्रभावित करते हैं।

अदालत ने उच्चतम न्यायलय द्वारा तय इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन बनाम एनपीईसी इंडिया लिमिटेड एवं अन्य AIR 2006 SC 2780 मामले का जिक्र करते हुए कहा कि उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे पर ध्यान दिया कि लोग सिविल कार्यवाही के बजाय एक आपराधिक मामला पसंद करते हैं, क्योंकि यह एक प्रचलित धारणा है कि सिविल कानून, उपाय देने में बहुत समय लेने वाले हैं और उधारदाताओं और लेनदारों के हितों की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं हैं।

मौजूदा मामले में उड़ीसा हाईकोर्ट ने आगे यह गौर किया कि यह प्रवृत्ति कई पारिवारिक विवादों में भी देखी जाती है, जो विवाहों के विवादास्पद टूटने की ओर ले जाती हैं। एक औसत मुकदमेबाज के मन में प्रचलित एक सामान्य धारणा यह है कि अगर कोई व्यक्ति किसी आपराधिक मुकदमे में शामिल हो सकता है, तो जल्दी समझौता होने की संभावना अधिक होती है।

गौरतलब है कि पिछले वर्ष उच्चतम न्यायालय ने पुलिस आयुक्त बनाम देवेंद्र आनंद (क्रिमिनल अपील नंबर 834 ऑफ़ 2017) के मामले में यह टिपण्णी की थी कि सिविल विवाद को निपटाने के लिए आपराधिक शिकायत दर्ज कराना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है।

शिकायत में आरोपों की प्रकृति पर विचार करते हुए हम इस दृढ़ राय से हैं कि आईपीसी की धारा 420/34 के तहत अपराध का संज्ञान लेने के लिए कोई मामला नहीं बनता है। मामले में एक सिविल विवाद शामिल है और सिविल विवाद को निपटाने के लिए आपराधिक शिकायत दर्ज की गई है जो कानून की प्रक्रिया के दुरुपयोग के अलावा कुछ और नहीं है," यह कहते हुए पीठ ने इस मामले में सभी आपराधिक कार्यवाही को समाप्त कर दिया था।

अंत में मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के मद्देनजर, अदालत द्वारा यह निर्देश दिया गया है कि याचिकाकर्ता को कुछ नियमों और शर्तों पर जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए, जैसा कि सहायक सत्र न्यायाधीश, चंदीखोल द्वारा उचित समझा जाए।

केस विवरण

केस नंबर: BLAPL No. 1747 OF 2020

केस शीर्षक: एस. रंजन राजू बनाम ओडिशा राज्य

कोरम: न्यायमूर्ति एस. के. पाणिग्रही

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