बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा, रेलवे मुआवजा अवॉर्ड में बच्चे भी मृतक मां के हिस्से के हकदार, उन्होंने खुद के हिस्से का मुआवजा पा लिया हो तो भी...:
बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा है कि बच्चे मुआवजे में अपना हिस्सा पाने के बाद भी, अपनी मां की ओर से रेलवे के मुआवजे के अवॉर्ड के निष्पादन की मांग कर सकते हैं।
कोर्ट ने रेलवे क्लेम्स ट्रिब्यूनल के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें कहा गया था कि याचिकाकर्ता-बेटे अपनी मृतक मां और दादी को दिए गए मुआवजे को पाने के पात्र नहीं हैं। उन्होंने रेलवे दुर्घटना में अपने पिता की मृत्यु के बाद पहले ही मुआवजे का अपना हिस्सा प्राप्त कर चुके हैं।
जज ने कहा, "मैं मानता हूं, अपीलकर्ता लक्ष्मीबाई और इंदुबाई के कारण दिए गए मुआवजे की वसूली के हकदार थे, मगर उन्हें दिया नहीं गया।"
जस्टिस एसके शिंदे ने ट्रिब्यूनल के पास जाने में बेटों की देरी को माफ कर दिया और अर्ध-न्यायिक प्राधिकरण को निर्देश दिया कि वह इस मामले को ध्यान में रखते हुए फिर से फैसला करे कि उसके पास एक निर्णय को निष्पादित करने के लिए एक सिविल कोर्ट की सभी शक्तियां हैं।
जज ने आगे कहा, "धारा 124 के तहत मुआवजे के लिए आश्रितों द्वारा दिया गया हर आवेदन रेलवे अधिनियम की धारा 125 (2) के तहत हर दूसरे आश्रित के लाभ के लिए है।"
मामला
याचिकाकर्ता किरण और संतोष पायगोड़े के पिता दामोदर की चलती ट्रेन से गिरकर मौत हो गई। मार्च 2009 में दामोदर की मां लक्ष्मीबाई, पत्नी इंदुबाई और याचिकाकर्ताओं को रेलवे अधिनियम की धारा 123 (बी) के तहत "आश्रित" घोषित किया गया, और उन्हें सामूहिक रूप से चार लाख रुपये का मुआवजा दिया गया।
हालांकि, तब तक मुआवजे की राशि डेढ़ लाख और एक लाख क्रमशः मृतक की पत्नी और मां तक पहुंचती, उनका निधन हो गया। मुआवजे की राशि "अनक्लेम्ड" के रूप में डाक से वापस लौट गई थी।
याचिकाकर्ता किरण और संतोष ने ट्रिब्यूनल के समक्ष एक आवेदन दायर किया, जिसमें कहा गया था कि उनकी मां और दादी के अनक्लेम्ड मुआवजे को "कानून के संचालन" या विरासत द्वारा उन्हें हस्तांतरित किया गया था।
हालांकि, ट्रिब्यूनल ने दो कारणों से उनके दावों को खारिज कर दिया। पहला, आवेदन 90 दिनों के बाद (पर्याप्त कारण के बिना) दायर किया गया था और दूसरा उनकी अयोग्यता के संबंध में, क्योंकि पहले ही मुआवजे का अपना हिस्सा प्राप्त कर लिया गया था। ट्रिब्यूनल ने कहा, वे अब "आश्रित" नहीं थे,
रेलवे दावा न्यायाधिकरण (आरसीटी) नियम की धारा 26(1) न्यायाधिकरण के समक्ष कार्यवाही में एक मृत दावेदार के नाम को कानूनी प्रतिनिधि के साथ प्रतिस्थापित करने की अनुमति देती है।
शुरुआत में, अदालत ने देखा कि अनक्लैम्ड मुआवजा अब दो महिलाओं की "संपत्ति" का हिस्सा बन गया है, जिसका दावा उनके बेटे और पोते कानूनी वारिस होने के नाते कर रहे थे, और यह मानना "बेतुका" होगा कि याचिकाकर्ता अब "आश्रित, नहीं थे" सिर्फ इसलिए कि उन्होंने अपना हिस्सा प्राप्त कर लिया है।
हाईकोर्ट ने कृष्णकुमार जी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें अदालत ने कहा था कि एक आश्रित के अधिकार केवल उसकी मृत्यु के कारण "हवा में गायब" नहीं हो सकते। रेलवे अधिनियम के अध्याय-XIII में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो यह सुझाव दे सके कि "आश्रित" शब्द में मृतक आश्रित के कानूनी उत्तराधिकारी शामिल नहीं हो सकते।
जज ने कहा, "मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, मैं देरी को माफ करने के लिए इच्छुक हूं।"
केस टाइटल: श्री किरण दामोदर पायगोडे और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, महाप्रबंधक द्वारा प्रतिनिधित्व।