एक बार आरोप तय होने के बाद दोषमुक्ति/दोषी ठहराया जाना चाहिए, सीआरपीसी की धारा 216 आरोप को हटाने की अनुमति नहीं देती: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2023-08-29 05:00 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि एक बार आरोप तय होने के बाद मुकदमे के अंत में आरोपी को या तो बरी होना चाहिए या दोषी ठहराया जाना चाहिए, क्योंकि सीआरपीसी की धारा 216 आरोप को हटाने की अनुमति नहीं देती।

जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा की पीठ ने देव नारायण नामक व्यक्ति द्वारा दायर पुनर्विचार याचिका खारिज करते हुए यह टिप्पणी की। उक्त पुनर्विचार याचिका में अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश (एफटीसी), चित्रकूट द्वारा पारित आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों में बदलाव के लिए सीआरपीसी की धारा 216 के तहत उनके आवेदन को खारिज कर दिया गया था।

आरोपी पर कथित तौर पर मृतिका की दहेज हत्या करने के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498-ए, 304-बी, 323 और डीपी एक्ट की धारा 3/4 के तहत आरोप लगाया गया।

उसके खिलाफ मामला यह है कि वह मृतक का जीजा है, जिसकी उसके घर के अंदर मौत हो गई थी। उसी दिन उसके पति का शव रेलवे ट्रैक के पास मिला था। घर की चाबियां भी साक्ष्यों के क्रम में है। इसके अलावा, जो मृतिका का शव मिला था, वह मृतिका के पति के शव के पास से बरामद किया गया था।

इससे पहले संशोधनवादी/अभियुक्त ने ट्रायल कोर्ट के समक्ष आरोपमुक्त करने के लिए आवेदन दायर किया, जिसे जुलाई 2017 के आदेश द्वारा खारिज कर दिया गया। मामले को अभियोजन साक्ष्य के लिए तय किया गया।

उक्त आदेश को चुनौती देते हुए उन्होंने हाईकोर्ट का रुख किया, जहां उनका डिस्चार्ज आवेदन खारिज करने का आदेश बरकरार रखा गया। साथ ही उन्हें ट्रायल कोर्ट के समक्ष सीआरपीसी की धारा 216 के तहत आरोप में बदलाव के लिए आवेदन देने की छूट देकर उनकी याचिका खारिज कर दी गई।

इसके बाद उन्होंने उक्त धारा के तहत आवेदन दायर किया। हालांकि, हाईकोर्ट ने नोट किया कि उस आवेदन में उन्होंने आरोपमुक्त करने की प्रार्थना की कि उन्हें आरोपित दंडात्मक धाराओं से मुक्त किया जा सकता है। साथ ही उनके खिलाफ लगाए गए आरोप रद्द किए जा सकते हैं।

इस प्रकार ध्यान देते हुए न्यायालय ने कहा कि ट्रायल कोर्ट सीआरपीसी की धारा 216 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए उक्त अपराधों के लिए उसके द्वारा तय किए गए आरोपों को नहीं हटा सकता, क्योंकि आपराधिक प्रक्रिया संहिता अदालत को ऐसी शक्तियां प्रदान नहीं करती।

न्यायालय ने यह भी कहा कि पुनर्विचार याचिकाकर्ता द्वारा दायर मुक्ति आवेदन पहले ही खारिज कर दिया गया और कहा गया कि आदेश अंतिम रूप ले चुका है।

इसके अलावा, विभूति नारायण चौबे उपनाम बनाम यूपी राज्य 2002 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा करते हुए न्यायालय ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 216 किसी आरोप को हटाने का प्रावधान नहीं करती है। साथ ही "हटाएं" शब्द जानबूझकर नहीं किया गया। इसे विधायिका द्वारा उपयोग किया जा रहा है।

नतीजतन, पुनर्विचार याचिका को सुनवाई योग्य न पाते हुए न्यायालय ने निचली अदालत का आदेश बरकरार रखा। इसके साथ ही पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी गई।

अपीयरेंस- आवेदक के वकील: वी.के. ओझा, अभय राज यादव,और प्रतिवादी के वकील: एजीए दीपक कपूर

केस टाइटल: देव नारायण बनाम यूपी राज्य और अन्य [आपराधिक पुनर्विचार नंबर - 1026/2023]

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