भारत की जमानत प्रणाली की चुनौतियां: जस्टिस अकील कुरैशी और सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन ने चर्चा की

Update: 2023-10-07 12:01 GMT

राजस्थान हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस जस्टिस अकील कुरैशी ने हाल ही में कहा कि जमानत मामलों में दो मुख्य चुनौतियां हैं, पहली सीमित संसाधन दूसरी व्यवस्था की खामियां। वह एक पैनल डिस्कसन में वक्ता के रूप में शामिल हुए ‌था, जिसमें चर्चा का मुद्दा के जमानत के मामले थे।

जमानत मामलों में चुनौतियों पर चर्चा करते हुए जस्टिस कुरैशी ने सुधार के तरीकों के बारे में भी बात की। उन्होंने कहा, "हमें बेहतर और अधिक जजों, अच्छी कानूनी सहायता, पर्याप्त संख्या में अभियोजकों की जरूरत है।"

एनएलयू दिल्ली प्रोजेक्ट 39ए और दक्ष ने पैनल चर्चा का आयोजन किया था।

पैनल में सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन और प्रोजेक्ट 39ए के कार्यकारी निदेशक, प्रोफेसर अनूप सुरेंद्रनाथ भी मौजूद थे, जिन्होंने चर्चा का संचालन किया।

बढ़ते अपराधीकरण, गिरफ्तारियों और गिरफ्तारी की शक्तियों के बारे में पूछे जाने पर, ज‌स्टिस कुरैशी ने कहा कि विधायी बाधाओं के साथ धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) और महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) जैसे कानून, विधायी बाधाओं के साथ, जमानत देने को अधिक कठोर और कठिन बनाते हैं और गिरफ्तारी को आसान बनाते हैं और इसका प्रभाव भयावह होता है।

जस्टिस कुरैशी ने हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (1979 एआईआर 1369) मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले पर भी प्रकाश डाला। दरअसल, इस निर्णय ने संविधान के अनुच्छेद 21 की व्यापक व्याख्या की और माना कि त्वरित सुनवाई प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है। इसने नागरिकों के बीच न्याय और समानता को प्रभावी ढंग से संचालित करने के लिए त्वरित सुनवाई और मुफ्त कानूनी सहायता पर जोर दिया।

विचाराधीन कैदियों की वित्तीय समस्याओं के संबंध में, जस्टिस कुरैशी ने कहा, “वित्तीय बाधाएं हैं। मुझे नहीं लगता कि किसी व्यक्ति की वित्तीय स्थिति का उसके मुकदमे में आने की क्षमता से कोई लेना-देना है।''

जमानत देने में न्यायिक विवेक और जमानत देने में विधायी बाधा वाले कानूनों के बारे में उन्होंने कहा,

"क्या हमें विवादों को निपटाने की न्यायपालिका की क्षमता पर संदेह करना चाहिए? ये कानून जमानत देना कठिन बनाते हैं। एससी एसटी अत्याचार अधिनियम की तरह इसमें अग्रिम जमानत नहीं है। ऐसा करने की संसद की शक्ति पर सवाल नहीं उठाया जा रहा है। लेकिन यह ऐसे मामलों को संभालने की न्यायपालिका की क्षमता, ऐसे कानूनों के पीछे की बुद्धिमत्ता पर अविश्वास पैदा करता है।''

उल्लेखनीय रूप से, जस्टिस कुरैशी ने जीएन साईबाबा (महाराष्ट्र राज्य बनाम महेश करीमन तिर्की और अन्य) और जहूर अहमद शाह वटाली (एनआईए बनाम जहूर अहमद शाह वटाली) के फैसलों के बारे में भी बात की।

उल्लेखनीय है ‌कि जीएन साईबाबा मामले में शनिवार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक असाधारण विशेष बैठक आयोजित की गई थी, जिसमें उसने यूएपीए मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जी एन साईबाबा और पांच अन्य को आरोपमुक्त करने के बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश को निलंबित कर दिया था।

साथ ही, वटाली के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यूएपीए मामलों में जमानत देने का दायरा सीमित कर दिया था।

जबकि जस्टिस कुरैशी ने जीएन साईबाबा मामले के संबंध में वटाली के फैसले को 'दुर्भाग्यपूर्ण' बताया, उन्होंने कहा, "एक बरी को खारिज करने के लिए शनिवार की सुनवाई की क्या आवश्यकता थी, जो अपने आप में दुर्लभ है? अगर उसे रिहा भी कर दिया जाता तो भी उसे गिरफ्तार किया जा सकता था।”

न्यायालयों में निरंतरता की कमी एक बहुत ही समस्याग्रस्त संकेत भेजती हैः रेबेका जॉन

बढ़ते अपराधीकरण, गिरफ्तारियों और गिरफ्तारी की शक्तियों से संबंधित प्रश्न का उत्तर देते हुए सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन ने याद किया कि कैसे पहले केवल 12 जमानत मामले (दिल्ली हाईकोर्ट में) होते थे और उसके बाद नियमित मामले होते थे। इस प्रकार सब कुछ सुना जाता ‌था। अब 80-90 मामले होते हैं और सब पर सुनवाई नही हो पाती।

उन्होंने माना कि बहुत से लोगों को जेल भेजा जा रहा है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि बहुत सारे मामले ऐसे हैं जहां जमानत तो दे दी जाती है, लेकिन कैदी जेल में बंद रहते हैं। जमानत देते समय अदालतों द्वारा लगाई गई कठिन शर्तों के बारे में बोलते हुए, उन्होंने कहा कि सॉल्वेंसी बांड, Google पिन और लोकेशन शेयर करना जैसी शर्तें हैं, जो निजता का हनन है।

इसके बाद, जॉन ने यह भी कहा कि अदालतों में निरंतरता की कमी एक मुद्दा है। इसे विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अतीत की त्रुटियों को सुधारने का प्रयास किया है, लेकिन इसमें कोई निरंतरता नहीं है, और यह बहुत समस्याग्रस्त संकेत भेजता है।

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