सजा के प्रावधान निर्धारित होने के बावजूद क्या एनडीपीएस अधिनियम के तहत सभी अपराध गैर-जमानती हैं? बॉम्बे हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने बड़ी बेंच को भेजा सवाल
बॉम्बे हाईकोर्ट की एकल पीठ ने इस सवाल को वृहद पीठ के हवाले कर दिया कि क्या एनडीपीएस एक्ट, 1985 के तहत सभी अपराध गैर-जमानती हैं, चाहे कितनी भी सजा निर्धाीरित की गई हो और इस तथ्य के बावजूद कि कई अपराधों में दंड के तौर पर कारावास भी अनिवार्य नहीं है।
अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत से संबंधित ड्रग्स मामले में अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की पूर्व प्रबंधक करिश्मा प्रकाश की अग्रिम जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस भारती डांगरे ने ये सवाल विचार के लिए निर्धारित किये हैं। यह संदर्भ 'स्टीफन मुलर बनाम महाराष्ट्र सरकार (2010)' और 'रिया चक्रवर्ती और अन्य बनाम भारत सरकार एवं अन्य (2020) में एकल पीठ द्वारा लिए गए परस्पर विरोधी विचारों के आलोक में दिया गया था।
स्टीफन मुलर में, एकल पीठ ने कहा,
"कहीं भी धारा 37 विशेष रूप से घोषित नहीं करती है कि एनडीपीएस अधिनियम के तहत दंडनीय प्रत्येक अपराध गैर-जमानती होगा" और यह माना कि अधिनियम की धारा 37 की कठोर शर्तें केवल धारा 19, 24, 27ए के तहत अपराधों और प्रतिबंधित पदार्थ की व्यावसायिक मात्रा से जुड़े मामले पर लागू होती हैं।
रिया चक्रवर्ती मामले में, न्यायाधीश ने 'पंजाब सरकार बनाम बलदेव सिंह (1999)' में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच के फैसले पर भरोसा जताया, जिसमें कहा गया था, "धारा 37 अधिनियम के तहत सभी अपराधों को संज्ञेय और गैर-जमानती बनाती है"। कोर्ट ने यह घोषित करने के लिए इस बयान पर भरोसा जताया कि स्टीफन मुलर का फैसला 'पर इंक्यूरियम' (असावधान) था, क्योंकि उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अनदेखी की थी।
शुरुआत में, कोर्ट ने कोऑर्डिनेट बेंचों के बीच असहमति के मामले में कार्रवाई के तरीके पर चर्चा की। इसने कहा कि रिया चक्रवर्ती मामले में एकल न्यायाधीश के पास स्टीफन मुलर (सुप्रा) को 'पर इनक्यूरियम' घोषित करने की कोई शक्ति नहीं थी। इस मामले में सही तरीका यह होगा कि मामले को एक बड़ी बेंच के पास भेज दिया जाए।
वर्तमान मामले में, कोर्ट ने 'बलदेव सिंह' में तर्क की जांच की और पाया कि मामले में विचार किए गए कानून का सवाल यह था कि क्या एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 का अनुपालन अनिवार्य है। इस प्रश्न का निर्णय करते समय न्यायाधीशों ने अधिनियम के इतिहास पर विचार किया और धारा 37 का संदर्भ दिया। कोर्ट ने माना कि यह एक बाध्यकारी दृष्टांत नहीं है क्योंकि यह एक अवलोकन है और मामले का कारण तय नहीं है। कोर्ट ने कहा, ''कोर्ट का निर्णय एक बाध्यकारी दृष्टांत है, अगर वह कारणों से समर्थित कानून के कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित करता है और कानून के किसी भी सिद्धांत को निर्धारित किए बिना केवल आकस्मिक टिप्पणियों या निर्देशों को एक दृष्टांत नहीं माना जाएगा।'' इसलिए जमानत के सवाल के लिए बलदेव सिंह मामले पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 की भाषा की पड़ताल की और पाया कि प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि यह अपने शीर्षक के कारण अधिनियम के तहत सभी अपराधों को गैर-जमानती बना रहा है। हालांकि, इसके सही अर्थ पर पहुंचने के लिए, इसे गैर-बाधक खंड के साथ पढ़ना होगा। धारा 37 (1) (बी) एनडीपीएस अधिनियम की धारा 19, 24 और 27 ए के तहत दंडनीय अपराध के लिए और वाणिज्यिक मात्रा से जुड़े अपराधों के लिए जमानत पर रिहा होने की शर्तों को निर्धारित करती है। कोर्ट ने विधायी इतिहास और उपरोक्त प्रावधान के इरादे पर विचार किया और कहा, "अगर विधायिका ने हर अपराध को गैर-जमानती बनाने का इरादा रखा होता, तो वह स्पष्ट रूप से ऐसा कर सकती थी, जैसे कि जब हर अपराध को संज्ञेय बनाने का इरादा था, तो उसने ''विशेष रूप से" शब्द जोड़ा होता ।''
कोर्ट ने कहा कि एनडीपीएस अधिनियम का "केवल धारा 37 (बी) में उल्लिखित अपराधों की सीमा तक" सीआरपीसी पर अधिभावी प्रभाव है। सीआरपीसी के प्रावधान अन्य मामलों में लागू होगा।
कोर्ट ने कहा,
"धारा 37 की हेडिंग एक छद्मनाम की तरह काम करती है और अगर कोई धारा 37 को पूरी तरह से पढ़ लेता है, तो यह धारणा बिखर जाती है और यह स्पष्ट हो जाता है कि विधायिका का इरादा कभी नहीं था कि एनडीपीएस अधिनियम के तहत हर अपराध गैर-जमानती होगा।"
यद्यपि कोर्ट ने रिया चक्रवर्ती में ली गई स्थिति से असहमत था, उसके पास निर्णय को रद्द करने की कोई शक्ति नहीं थी। कोर्ट ने 'महादेवलाल कनोडिया बनाम पश्चिम बंगाल के प्रशासक जनरल' मामले पर भरोसा जताया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, "यदि हाईकोर्ट में समन्वय क्षेत्राधिकार के जज एक दूसरे के फैसलों को खारिज करना शुरू कर देते हैं तो कानून में निश्चितता की गुणवत्ता पूरी तरह से गायब हो जाएगी।''
उपरोक्त तर्क के आलोक में निम्नलिखित प्रश्न को बॉम्बे हाईकोर्ट की एक बड़ी बेंच को भेजा गया है -
क्या नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 के तहत सभी अपराध गैर-जमानती हैं, भले ही निर्धारित सजा कुछ भी हो और इस तथ्य के बावजूद कि कई अपराध सजा के रूप में कारावास को अनिवार्य नहीं करते हैं?
केस शीर्षक: करिश्मा प्रकाश बनाम भारत सरकार और अन्य।
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