पीड़िता पुनर्विचार आवेदन दायर करके आरोपी की सजा बढ़ाने की मांग कर सकती है: बॉम्बे हाईकोर्ट

Update: 2022-06-14 08:54 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि पीड़िता केवल पुनर्विचार आवेदन दायर अपराधी की सजा बढ़ाने की मांग कर सकती है, न कि निचली अदालत के फैसले के खिलाफ अपील दायर करके।

जस्टिस साधना एस. जाधव और जस्टिस मिलिंद एन. जाधव की खंडपीठ ने कहा कि पीड़िता सीआरपीसी की धारा 372 के प्रावधान के तहत केवल तीन परिस्थितियों में अपील दायर कर सकती है-

1. आरोपी को बरी करने के खिलाफ अपील दायर करके।

2.जब आरोपी को कम अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है, या

3. पीड़ित को अपर्याप्त मुआवजा दिया जाता है।

पीठ ने कहा कि सजा के खिलाफ पीड़िता की अपील सीआरपीसी की धारा 372 के तहत सुनवाई योग्य नहीं हो सकती है, हालांकि इसी राहत के लिए सीआरपीसी की धारा 401 के तहत पुनर्विचार आवेदन किया जा सकता है। अदालत ने कहा कि इस तरह के आवेदन को बॉम्बे हाईकोर्ट अपीलीय पक्ष नियम, 1960 के नियम 2 (II) (ए) के तहत भी मान्यता प्राप्त है।

अदालत ने कहा,

"निस्संदेह पीड़िता/शिकायतकर्ता के कहने पर सजा में वृद्धि के लिए पुनर्विचार आवेदन विचारणीय होगा ... हालांकि परविंदर कंसल (सुप्रा) और मल्लिकार्जुन कोडगली (सुप्रा) के मामले में सुप्रीम कोर्ट की विशिष्ट टिप्पणियों में देखा जा सकता है कि सजा के खिलाफ अपील करने का अधिकार अपीलकर्ता (पीड़ित) को क़ानून के विशिष्ट प्रावधानों के मद्देनजर उपलब्ध नहीं होगा।"

मामला

पीठ ने इस प्रकार इंटरनेशनल कंपनी के लिए काम करने वाली महिला द्वारा दायर आपराधिक अपील को खारिज करते हुए फैसला सुनाया, जिसे उत्तर प्रदेश के भावी दूल्हे द्वारा बहकाया गया, (328), धोखा दिया गया (417) और धमकी (506) दी गई थी।

महिला ने 2015 में सीआरपीसी की धारा 372 के तहत अपील दायर कर पुरुष को दी गई सजा को सात साल से बढ़ाकर अधिकतम दस साल करने की मांग की थी। दो नोटिसों के बावजूद महिला का पता नहीं चल सका, जिसके बाद अदालत ने उसके पक्ष में वकील मिहिर जोशी को नियुक्त किया।

जहां तक ​​आरोपी का सवाल है, उसे 2016 में अपनी पूरी सजा काटने के बाद रिहा कर दिया गया था। इसलिए, दोषसिद्धि के खिलाफ उसकी अपील निष्फल है।

तर्क

महिला के लिए एडवोकेट मिहिर जोशी ने मल्लिकार्जुन कोडगली बनाम कर्नाटक राज्य के फैसले का हवाला दिया (2019) 2 एससीसी 752 में रिपोर्ट किया गया, जिसमें यह देखा गया कि धारा 372 का प्रावधान पीड़ित को सशक्त बनाना और निचली अदालत द्वारा पारित प्रतिकूल आदेश को चुनौती देने के लिए सामाजिक कल्याण कानून है।

उन्होंने तर्क दिया कि इसलिए, धारा को एक ऐसा अर्थ दिया जाना चाहिए जो अपराध के शिकार के लिए यथार्थवादी, उदार, प्रगतिशील और फायदेमंद हो।

उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) विधेयक, 2006 के नोट्स की ओर इशारा किया, जिसके माध्यम से धारा 372 का प्रावधान पेश किया गया। उक्त प्रावधान ट्रायल कोर्ट के "किसी भी प्रतिकूल आदेश" के खिलाफ पीड़ित के अपील करने के अधिकार के बारे में बात करते हैं।

राज्य के एपीपी पीपी शिंदे ने तर्क दिया कि पीड़िता की अपील विचारणीय नहीं है, क्योंकि भले ही 2003 में मलीमठ समिति ने पीड़ितों के लिए कुछ अधिकारों की सिफारिश करते हुए रिपोर्ट प्रस्तुत की हो, लेकिन संसद ने अपने विवेक से यह निर्दिष्ट नहीं किया कि पीड़ित को सजा बढ़ाने के लिए अपील करने का अधिकार है।

टिप्पणियां

पीठ ने परविंदर कंसल बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और अन्य राज्य के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पिता की अपील अपने बच्चे की हत्या के लिए दोषी की सजा को उम्रकैद से बढ़ाकर मौत की सजा देने के लिए विचारणीय नहीं है। अदालत ने कहा कि केवल राज्य सरकार ही सीआरपीसी की धारा 377 के तहत सजा के खिलाफ अपील दायर कर सकती है।

अदालत ने देखा कि यह एससी के फैसले से बाध्य है, लेकिन भारत की संसद/राज्य सभा सचिवालय और लोकसभा सचिवालय को 2007 में प्रस्तुत रिपोर्ट के अवलोकन में उल्लेख किया गया कि "अदालत द्वारा पारित किसी भी प्रतिकूल आदेश के खिलाफ पीड़ित को अपील करने का अधिकार होगा।"

अंत में पीठ ने कहा कि सजा के खिलाफ पीड़िता का पुनर्विचार आवेदन विचारणीय होगा।

केस टाइटल: आनंद सिंह बनाम महाराष्ट्र राज्य, जुड़े मामलों के साथ

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