'न्यायिक इतिहास में एक दुखद क्षण ' : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जीवन रक्षा के लिए कोर्ट रूम में हथियार ले जाने पर कहा
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना है कि जब भी सार्वजनिक शांति या सार्वजनिक सुरक्षा को खतरा हो, तो शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 17(3)(बी) के तहत लाइसेंसिंग प्राधिकारी के लिए लाइसेंस रद्द करना या निलंबित करना अनिवार्य है। हाईकोर्ट ने पूरे उत्तर प्रदेश में वकीलों/वादियों को अदालत परिसर में हथियार ले जाने पर भी रोक लगा दी है।
न्यायालय ने माना है कि वकीलों और वादियों को अदालत परिसर के अंदर हथियार ले जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है क्योंकि यह स्पष्ट रूप से अदालत परिसर में सार्वजनिक शांति या सार्वजनिक सुरक्षा के लिए खतरा होगा और न्याय प्रशासन पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। न्यायालय परिसर में ड्यूटी पर तैनात सशस्त्र बलों के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को न्यायालय परिसर के अंदर हथियार ले जाते हुए पाए जाने पर उसका शस्त्र लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा।
एक युवा वकील के हथियार लाइसेंस को रद्द करने के मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस पंकज भाटिया ने यह टिप्पणी की,
“न्यायिक इतिहास में यह एक दुखद क्षण है जब एक वकील, जिसने केवल दो वर्षों तक वकालत की है, इस गलत धारणा को पालता है कि पेशेवर सफलता के लिए अदालत कक्ष के भीतर हथियार चलाना आवश्यक है। यह भावना कानूनी अभ्यास के सिद्धांतों से चिंताजनक विचलन को दर्शाती है, जो न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता और मर्यादा को कमजोर करती है। इस तरह की मान्यताएं एक निष्पक्ष और उचित कानूनी प्रणाली की नींव के विपरीत हैं, जो कानूनी पेशे के भीतर मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता पर बल देती हैं।
तथ्यात्मक पृष्ठभूमि
2018 में एक वकील के रूप में नामांकित याचिकाकर्ता पर न्यायालय परिसर में हथियार ले जाने के लिए शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 30 (लाइसेंस या नियम के उल्लंघन के लिए सजा) के साथ पढ़ी जाने वाली आईपीसी की धारा 188 (लोक सेवक द्वारा विधिवत आदेश की अवज्ञा) के तहत अपराध का आरोप लगाया गया था।
हालांकि याचिकाकर्ता को कारण बताओ नोटिस दिया गया था, लेकिन उसने कभी जवाब नहीं दिया। यूपी राज्य में सभी न्यायालय परिसरों में सुरक्षा और संरक्षण से संबंधित जनहित याचिका (पीआईएल) संख्या 2436 2019 में हाईकोर्ट द्वारा 02.01.2020 को जारी किए गए सामान्य निर्देशों को ध्यान में रखते हुए, लाइसेंसिंग प्राधिकारी आगे बढे और याचिकाकर्ता का शस्त्र लाइसेंस रद्द कर दिया गया।
अपील में याचिकाकर्ता ने दलील दी कि वह इस बात से अनजान था कि अदालत परिसर में सशस्त्र लाइसेंस ले जाने की अनुमति नहीं है और वह भविष्य में ऐसा नहीं करेगा। उन्होंने यह भी दलील दी कि उनके हथियार लाइसेंस को रद्द करने की कार्यवाही शुरू करने के लिए उन्हें चुना गया था। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर भरोसा करते हुए अपील खारिज कर दी गई और यह भी कहा गया कि वह आपराधिक ट्रायल का सामना कर रहा है।
याचिकाकर्ता ने अपील खारिज करने को इस आधार पर चुनौती दी कि हथियार रखने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक अधिकार है, जो जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के संरक्षण के लिए आवश्यक है। तर्क दिया गया कि प्रैक्टिसिंग वकील होने के कारण याचिकाकर्ता की जान को खतरा है
"मुकदमेबाजी के पक्षकारों की झुंझलाहट।"
यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता के हथियार लाइसेंस को रद्द करने से सार्वजनिक शांति या सार्वजनिक सुरक्षा को कोई खतरा नहीं था।
राज्य के वकील ने तर्क दिया कि युवा वकील होने का दावा करने वाले याचिकाकर्ता को कानून को बनाए रखने के लिए कोई सम्मान नहीं है क्योंकि वह अदालत परिसर में बंदूक लेकर जा रहा था और उसने लाइसेंसिंग प्राधिकारी द्वारा जारी कारण बताओ नोटिस का जवाब नहीं दिया। यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता ने आरोप-पत्र में लगाए गए आरोपों को स्वीकार कर लिया है, और यह तर्क देकर नकारात्मक समानता का दावा करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है कि सिर्फ उसी को अलग किया गया था।
आगे यह भी तर्क दिया गया कि हथियार लाइसेंस देना एक विशेषाधिकार है न कि अधिकार। याचिकाकर्ता का लाइसेंस शस्त्र अधिनियम के शासनादेश के साथ-साथ सामान्य नियम (सिविल) और हाईकोर्ट द्वारा जारी सामान्य निर्देशों के तहत सही ढंग से रद्द किया गया था।
हाईकोर्ट का फैसला
शस्त्र अधिनियम और उसके तहत बनाए गए नियमों का विश्लेषण करते हुए, न्यायालय ने माना कि शस्त्र नियम 2016 के नियम 32 के उप-नियम 3 के तहत, आग्नेयास्त्र मुक्त क्षेत्र में आग्नेयास्त्र ले जाना सख्त वर्जित है और इसे रद्द करने के लिए और अधिनियम के तहत निर्धारित दंड के अलावा लाइसेंस और आग्नेयास्त्र की जब्ती का अतिरिक्त आधार बन सकता है।
न्यायालय ने यह भी कहा कि सामान्य नियम (सिविल) का नियम 614-ए जो राज्य में सिविल अदालतों के कामकाज को नियंत्रित करता है, ड्यूटी पर तैनात पुलिस कर्मियों के अलावा किसी भी व्यक्ति को अदालत परिसर के भीतर हथियार (जैसा कि शस्त्र अधिनियम में परिभाषित है) ले जाने से रोकता है। कोर्ट ने कहा कि यह प्रतिबंध अधिकारियों/कर्मचारियों के आवासीय क्वार्टरों को छोड़कर पूरे अदालत परिसर पर लागू होता है।
तदनुसार, न्यायालय ने तीन मुद्दे तय किये:
I. क्या हथियार रखने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकार है?
II. क्या उन वकीलों द्वारा अदालत परिसर में हथियार ले जाने की अनुमति है जो दावा करते हैं कि कानून का पेशा विशिष्ट है और मुकदमेबाजी के पक्षकारों की झुंझलाहट के कारण चुनौतीपूर्ण है?
III. क्या न्यायालय परिसर में हथियार ले जाने पर शस्त्र नियमों के साथ पठित धारा 17 के तहत शस्त्र लाइसेंस रद्द किया जा सकता है?
कैलाश नाथ और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य तथा राणा प्रताप सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ के फैसले पर भरोसा करते हुए जस्टिस भाटिया ने कहा कि "हथियार लाइसेंस केवल एक विशेषाधिकार है जो कि दिया गया है।
दूसरे मुद्दे के संबंध में, न्यायालय ने माना कि सामान्य नियम (सिविल) का नियम 614-ए न केवल वकीलों बल्कि जनता के प्रत्येक सदस्य को न्यायालय परिसर के भीतर हथियार ले जाने से रोकता है, जो केवल न्यायालय भवन तक ही सीमित नहीं है बल्कि पूरे परिसर में है।
पेशे की प्रकृति के कारण बंदूक ले जाने पर जोर देने वाले युवा वकीलों की सोच की निंदा करते हुए, न्यायालय ने कहा,
“युवा पेशेवर को यह याद दिलाने की जरूरत है कि कानूनी पेशा एक महान पेशा है और यह सदियों से जारी है; एक वकील का मूल्य उसकी कलम, कड़ी मेहनत और कानून की उसकी समझ से आता है, न कि बंदूक की नली से, जैसा कि यहां याचिकाकर्ता युवा पेशेवर द्वारा व्यक्त किया गया है।"
न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्ता जैसे युवा पेशेवर, जो कानूनी पेशे में प्रवेश कर रहे हैं, उन्हें इस धारणा से छुटकारा पाने के लिए गंभीर परामर्श की आवश्यकता है कि पेशे में उनकी सुरक्षा के लिए आग्नेयास्त्र की आवश्यकता होती है।
कोर्ट ने आगे कहा,
“यह इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि कानूनी पेशे में ऐसे लोगों की भीड़ हो रही है जो किसी व्यवस्थित प्रशिक्षण से नहीं गुजर रहे हैं, जो पहले चैंबर संबद्धताओं के माध्यम से अनौपचारिक रूप से प्रदान किया जाता था; यह पहलू बार काउंसिल के अधिकार क्षेत्र में है और बार काउंसिल को चर्चा के बाद प्रभावी तरीकों और साधनों के माध्यम से इस पहलू का निवारण करने की सलाह दी जाती है।"
न्यायालय ने माना कि अधिनियम की धारा 17(3)(बी) में "हो सकता है" शब्द कर्तव्य के साथ शक्ति का एक संयोजन है। शस्त्र अधिनियम के कथन और उद्देश्यों के साथ पढ़ते हुए, धारा 17(3)(बी) के तहत लाइसेंसिंग प्राधिकारी के पास 'सार्वजनिक शांति की सुरक्षा' या 'सार्वजनिक सुरक्षा' के लिए लाइसेंस रद्द करने की शक्ति है।
कौशल किशोर बनाम यूपी राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 के तहत सभी व्यक्तियों को उनके अधिकारों का आनंद लेने में सक्षम बनाने के लिए कानून और व्यवस्था बनाए रखना राज्य का सकारात्मक दायित्व है। न्यायालय ने कहा कि सार्वजनिक सुरक्षा के लिए खतरा होने की स्थिति में आग्नेयास्त्र लाइसेंस रद्द करने के लिए लाइसेंसिंग प्राधिकारी को विवेकाधिकार देने की व्याख्या के गंभीर परिणाम होंगे।
न्यायालय ने न्यायालय परिसर में आग्नेयास्त्रों के मामलों के संबंध में पालन किए जाने वाले दिशानिर्देश भी निर्धारित किए।
तदनुसार, कोर्ट परिसर में हथियार न ले जाने के लिए वकीलों को जागरूक करने के लिए कदम उठाने के लिए बार काउंसिल ऑफ इंडिया और बार काउंसिल ऑफ यूपी को निर्देश देते हुए रिट याचिका खारिज कर दी गई।
केस : अमनदीप सिंह बनाम प्रमुख सचिव, गृह, लखनऊ के माध्यम से यूपी राज्य और 2 अन्य [ रिट - सी संख्या - 2461/ 2023]
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