''संपत्ति प्राप्त करने के बाद बच्चे अक्सर माता-पिता को छोड़ देते हैं'': पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने वृद्ध विधवा की संपत्ति के अवैध हस्तांतरण को खारिज किया

Update: 2021-07-14 09:15 GMT

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट पिछले सप्ताह उस 76 वर्षीय विधवा के बचाव में आया, जिसके घर को उसके बेटे ने अवैध रूप से अपने नाम हस्तांतरित करवा लिया था और उसके बाद उसे घर से निकाल दिया था।

जस्टिस ऑगस्टाइन जॉर्ज मसीह और जस्टिस अशोक कुमार वर्मा की एक बेंच ने माता-पिता एंव वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण एंव कल्याण अधिनियम, 2007 (मेंटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पेरेंट्स एंड सीनियर सिटीजन एक्ट, 2007) के उद्देश्य से उन वृद्ध माता-पिता के अधिकारों को सुरक्षित करने पर विचार किया, जिन्हें अक्सर उनके बच्चों द्वारा छोड़ दिया जाता है।

पीठ ने कहा कि,''अक्सर देखा जाता है कि अपने माता-पिता से संपत्ति प्राप्त करने के बाद, बच्चे उन्हें छोड़ देते हैं। ऐसी स्थिति में, माता-पिता एंव वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण एंव कल्याण अधिनियम, 2007 ऐसे वृद्ध माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक सक्षम जीवन रेखा है, जिनके बच्चों उनकी देखभाल नहीं करते हैं और वह उपेक्षित हो जाते हैं। अधिनियम 2007 की धारा 23 इसके लिए एक निवारक है और इसलिए उन बुजुर्ग लोगों के लिए फायदेमंद है जो अपने जीवन के अंतिम चरण में खुद की देखभाल करने में असमर्थ हैं। बच्चों से अपने बुजुर्ग माता-पिता की ठीक से देखभाल करने की अपेक्षा की जाती है, जो न केवल एक मूल्य आधारित सिद्धांत है, बल्कि एक बाध्य कर्तव्य है, जैसा कि अधिनियम 2007 के जनादेश में निहित है।''

पृष्ठभूमिः

वर्तमान मामले में, प्रतिवादी एक वृद्ध विधवा है, जिसके मृत पति ने उसकी भलाई सुनिश्चित करने के लिए उसके कब्जे में एक घर और एक दुकान छोड़ दी थी। हालांकि, उसके पति की मृत्यु के दो साल बाद, विधवा के सबसे छोटे बेटे ने धोखे से उसके नाम पर छोड़े गए घर को अपने नाम पर स्थानांतरित करवा लिया। इसके बाद, वृद्ध विधवा को घर से निकाल दिया गया और उसके बेटे ने उसे शारीरिक रूप से प्रताड़ित भी किया।

प्रतिवादी विधवा ने दो से तीन बार सुलह की कार्यवाही के लिए पंचायत से संपर्क किया, लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला। नतीजतन, उसने पीठासीन अधिकारी, भरण-पोषण न्यायाधिकरण, टोहाना की शक्तियों का प्रयोग करते हुए उप-मंडल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) से संपर्क किया और अधिनियम 2007 की धारा 5 (1) के तहत एक आवेदन दायर किया। इस प्रकार, उसने घर और एक दुकान की रजिस्ट्री उसे वापस करने और उसके जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की सुरक्षा के लिए प्रार्थना की।

प्रतिवादी की शिकायतों को ध्यान में रखते हुए, एसडीएम ने 19 अगस्त, 2019 के आदेश के तहत याचिकाकर्ता को विधवा के नाम पर घर स्थानांतरित करने और अपनी मां को निर्वाह भत्ता के रूप में प्रतिमाह दो हजार रुपये भी प्रदान करने का निर्देश दिया। 4 सितंबर, 2015 की उस ट्रांसफर डीड को भी रद्द करने का आदेश दिया गया था, जिसके तहत याचिकाकर्ता के नाम अवैध रूप से विधवा की दुकान को ट्रांसफर कर दिया गया था।

इस आदेश से व्यथित होकर याचिकाकर्ता ने जिला कलेक्टर फतेहाबाद की अध्यक्षता में अपीलीय न्यायाधिकरण के समक्ष अपील दायर की थी। अपीलीय न्यायाधिकरण ने याचिकाकर्ता की अपील को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए ट्रांसफर डीड को रद्द करने के आदेश को पलट दिया। साथ ही यह सुनिश्चित करने के लिए कहा गया कि विधवा को याचिकाकर्ता द्वारा भरण-पोषण का भुगतान किया जाए और उसे उसके घर में रहने की अनुमति दी जाए।

नतीजतन, प्रतिवादी विधवा ने अपीलीय न्यायाधिकरण के 12 फरवरी, 2020 के आक्षेपित आदेश को रद्द करने की मांग करते हुए एक रिट याचिका दायर की थी। विधवा द्वारा दायर रिट याचिका को न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने 24 अप्रैल, 2021 के आदेश के तहत अनुमति दे दी थी और एसडीएम द्वारा पारित आदेश को समग्रता में बनाए रखने का निर्देश दिया गया था। तदनुसार, याचिकाकर्ता ने एकल न्यायाधीश के उक्त आदेश के खिलाफ तत्काल पत्र पेटेंट अपील दायर की है।

कोर्ट का अवलोकनः

कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता की यह दलील कि एसडीएम ने एक ऐसा आदेश पारित किया था, जो प्रतिवादी द्वारा मांगी गई राहत से परे है, पूरी तरह से गलत है। अदालत ने कहा कि प्रतिवादी ने एसडीएम के समक्ष अपनी याचिका में उल्लेख किया था कि उसके बेटे ने धोखे से अपने नाम पर घर स्थानांतरित करके उसे घर से निकाल दिया था। इसके अलावा, अधिनियम 2007 की धारा 5(1)(सी) एसडीएम को किसी मामले पर स्वतः संज्ञान लेने का अधिकार देती है।

कोर्ट ने कहा कि,

''इस तरह के सक्षम प्रावधानों की उपस्थिति में, यह नहीं कहा जा सकता है कि एसडीएम ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर मनमाने ढंग से काम किया है और प्रतिवादी नंबर 1- ईश्वर देवी द्वारा मांगी गई राहत से परे राहत दी है।''

कल्याणकारी कानून के उद्देश्य पर विचार हुए, न्यायालय ने कहा कि,

''संसद ने वृद्धावस्था में एक वरिष्ठ नागरिक की गरिमा और सम्मान को बनाए रखने के लिए वरिष्ठ नागरिक अधिनियम को अधिनियमित किया है। राज्य को बुढ़ापे में लोगों के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में गंभीर चिंता थी। शारीरिक कमजोरियों के अलावा, वे भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक चुनौतियों का भी सामना करते हैं। इन कमजोरियों के कारण, वे पूरी तरह से निर्भर हो जाते हैं। कानून के माध्यम से तैयार किया गया नैतिक कानून समाज में सभी के कल्याण को युक्तिसंगत बनाने के लिए आवश्यक है। अतीत में समाज में प्रचलित नैतिक मूल्यों को सार्वभौमिक मूल्यों के रूप में स्वीकार किया गया है। राज्य अपने विवेक में, इन मूल्यों की स्वीकृति पर विचार करते हुए, वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के माध्यम से काॅमन गुड को बढ़ावा देना चाहता है।''

कोर्ट ने आगे कहा कि एसडीएम ने पूरी तरह से निरीक्षण करने के बाद एक विस्तृत, तर्कसंगत और उचित आदेश दिया था। एसडीएम ने संबंधित पक्षों से बातचीत भी की थी और इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि याचिकाकर्ता ने अपनी मां की उपेक्षा की थी और अपने नाम पर घर स्थानांतरित करवाने के बावजूद उसे बुनियादी सुविधाएं नहीं दी थी।

इसके विपरीत, कोर्ट ने कहा कि अपीलीय न्यायाधिकरण द्वारा पारित आदेश ''अस्पष्ट, नाॅन-स्पीकिंग और कानून की नजर में गलत था और इस तरह की शक्ति के प्रयोग अनुचित समझा जाना चाहिए।'' तदनुसार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि एसडीएम ने अधिनियम 2007 की धारा 23 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का सही प्रयोग किया था और वृद्ध प्रतिवादी के हितों की रक्षा के लिए संबंधित ट्रांसफर डीड को रद्द कर दिया था।

उम्र बढ़ने पर अक्सर अकेले छोड़ दिए जाने वाले माता-पिता के हितों की रक्षा के लिए अधिनियम 2007 की धारा 23 (1) की आवश्यकता पर विचार करते हुए,न्यायालय ने कहा कि,

''अधिनियम 2007 की धारा 23 (1) स्पष्ट रूप से यह निर्धारित करती है कि यदि बच्चे अपने माता-पिता की संपत्ति को अपने पक्ष में स्थानांतरित करने के बाद अपने माता-पिता की देखभाल करने में विफल रहते हैं, तो संपत्ति के उक्त हस्तांतरण को धोखाधड़ी या जबरदस्ती या अनुचित प्रभाव के तहत किया गया माना जाएगा और ट्रिब्यूनल द्वारा हस्तांतरणकर्ता के विकल्प को शून्य घोषित किया जाएगा। अधिनियम 2007 की धारा 23 (1) के तहत प्रावधान बुजुर्ग लोगों को एक सम्मानजनक अस्तित्व प्रदान करने का प्रयास करते हैं।''

तद्नुसार, न्यायालय ने एसडीएम के उपरोक्त निर्देशों को प्रभावी बनाने के लिए न्यायालय के एकल न्यायाधीश के आदेश को बरकरार रखते हुए याचिका का निस्तारण कर दिया।

केस का शीर्षकः रमेश उर्फ पप्पी बनाम ईश्वर देवी

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