(एसिड अटैक) पत्नी का बार-बार पति के साथ लौटने से इनकार करना, सजा कम करने वाला एक कारक : त्रिपुरा हाईकोर्ट
त्रिपुरा हाईकोर्ट ने सोमवार को अपनी पत्नी पर एसिड फेंकने के लिए दोषी एक व्यक्ति की सजा कम कर दी है। हाईकोर्ट ने माना है कि उसके बार-बार कहने के बाद भी उसकी पत्नी ने वैवाहिक घर में वापस आने से इनकार कर दिया था जिस कारण वह काफी हताश था और उसकी यह हताशा सजा को कम करने वाला एक कारक है।
न्यायमूर्ति एस तलपात्रा और न्यायमूर्ति एस.जी. चट्टोपाध्याय की पीठ ने कहा कि-
''... उनके अलग होने के बाद, अपीलकर्ता अपनी पीड़ित पत्नी से उसके पिता के घर पर कई बार मिलने गया और उसे अपने घर वापस लाने की कोशिश की, परंतु उसने वैवाहिक घर में वापस आने से इनकार कर दिया...यह परिस्थिति इंगित करती है कि अपीलकर्ता अपनी पत्नी के साथ अपने वैवाहिक संबंध को बहाल करना चाहता था लेकिन उसकी अनिच्छुक पत्नी उसके साथ वापिस आने के लिए तैयार नहीं थी, जिसने शायद अपीलकर्ता में निराशा की भावना पैदा कर दी। हम अपीलार्थी द्वारा किए गए अपराध के लिए उसको दी जाने वाली सजा की आनुपातिकता के बारे में निर्णय लेते समय इस मिटिगैटिंग या सजा को कम करने वाली परिस्थिति को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं।''
इस प्रकार, पीठ ने आईपीसी की धारा 326 ए ( एसिड का उपयोग करके स्वैच्छिक रूप से गंभीर चोट पहुंचाना) के तहत प्रदान की गई न्यूनतम सजा अपीलकर्ता को दी है यानि उसे दस साल की सजा दी गई है। जबकि निचली अदालत ने उसे अधिकतम सजा दी थी,जो उम्रकैद है।
खंडपीठ इस मामले में एक अपील पर सुनवाई कर रही थी। अपीलकर्ता ने आईपीसी की धारा 326 ए और 498 ए (एक महिला के पति या पति के रिश्तेदारों द्वारा उस पर क्रूरता करना) के तहत दोषी ठहराए जाने के खिलाफ अपील दायर की थी।
अभियोजन पक्ष के गवाहों के साक्ष्यों का विश्लेषण (संबंधित गवाहों के साथ-साथ औपचारिक गवाह भी) करने के बाद न्यायालय ने माना कि-
''हमें ऐसा प्रतीत होता है कि पीड़िता पर तेजाब फेंकने के अपीलकर्ता के कृत्य के संबंध में ठोस , सुसंगत,तर्कयुक्त और प्रेरक साक्ष्यों को नजरअंदाज करना काफी मुश्किल है। घटना वाले दिन अपीलकर्ता पति द्वारा एसिड हमला करना के संबंध में पीड़िता द्वारा एक बहुत सुसंगत सबूत दिया गया है जो पूरी तरह से विश्वसनीय और भरोसेमंद है।''
सजा के सवाल पर पीठ ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित विभिन्न फैसलों पर भरोसा किया। जिनमें ''अपराध और सजा के बीच आनुपातिकता'' बनाए रखने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।
पीठ ने माना कि भले ही ट्रायल कोर्ट ने वैधानिक सीमा के भीतर सजा देने के संबंध में व्यापक विवेक का इस्तेमाल किया है,परंतु सजा के संबंध में कोई ''संरचित दिशानिर्देश'' नहीं है।
एक अन्य समस्या, जिसे बेंच ने देखा वो ये थी कि अपराधी के शैक्षिक, पेशेवर और सामाजिक बैक ग्राउंड के संबंध में विश्वसनीय सामग्री, उसके गृह जीवन की जानकारी, उसकी समायोजन क्षमता, उसकी भावनात्मक और मानसिक स्थिति, उसके स्वास्थ्य की स्थिति, उनके पुनर्वास की संभावना और सामान्य जीवन में उसकी वापसी की संभावना की जानाकरी सजा पर सुनवाई के समय ट्रायल जज के समक्ष ठीक से पेश नहीं की गई। जिससे जज को सजा के संबंध में सही फैसला लेने में मदद मिल सकती थी।
इस प्रकार अदालत ने अपराध की प्रकृति, जिस तरीके से योजना बनाई और उसे अंजाम दिया,अपराध का मकसद,अपराधी का आचरण, इस्तेमाल किए गए हथियारों की प्रकृति और अन्य सभी परिस्थितियों को देखते हुए अपीलकर्ता की सजा को कम कर दिया।
पीठ ने कहा कि-
''अपर्याप्त सजा देने के लिए दिखाई गई अनुचित सहानुभूति ,न्याय प्रणाली को अधिक नुकसान पहुँचाएगी। जिससे कानून की प्रभावकारिता में जनता का विश्वास कम हो सकता है। यह हर अदालत का कर्तव्य है कि वह अपराध की प्रकृति और जिस तरीके से उसे निष्पादित किया गया है,उसको देखते हुए उचित सजा प्रदान करे। न्यायालयों को उचित सजा देते समय केवल अपराध के पीड़ित के अधिकारों को ही ध्यान में नहीं रखना चाहिए, बल्कि पूरे समाज का ध्यान रखना चाहिए।''
जहां तक धारा 498 ए के तहत सजा का संबंध है तो न्यायालय ने माना कि अभियोजन क्रूरता के आरोप को स्थापित नहीं कर पाया। न्यायालय ने पाया कि पीड़िता और उसके माता-पिता के सामान्य बयानों के अलावा, अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 498 ए के आरोप के समर्थन में कोई अन्य सबूत पेश नहीं किया गया।
इसके अलावा पीठ ने कहा कि उनके बयान भी ''सुसंगत'' और ''प्रेरक'' नहीं थे और वास्तव में उनमें कई विसंगतियां थी।
कोर्ट ने इस प्रकार माना कि-
''यह उनके बयानों से स्पष्ट है कि पीड़िता और अपीलकर्ता के बीच एक अच्छा संबंध नहीं था। जिसके परिणामस्वरूप उनकी शादी के कुछ महीनों के भीतर ही उनका अलगाव हो गया था। लेकिन यह सबूत अपीलार्थी पर आईपीसी की धारा 498 ए का आरोप लगाने के पर्याप्त नहीं थे...
इस तरह की कलह और आपसी जीवन में ऐसे मतभेदों के कारण उत्पन्न झगड़ों को आईपी की धारा 498ए के खंड (क) के अर्थ के भीतर क्रूरता के समान नहीं माना जा सकता है। जब तक कि यह साबित नहीं होता है कि पत्नी के साथ हुई क्रूरता, अपीलकर्ता का एक दुराग्रही आचरण था। जिसने पीड़िता को मानसिक रूप से प्रभावित किया है और अवसाद से चलते उसने आत्महत्या करने या अपने जीवन , अंग या अपने मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य को गंभीर चोट या खतरा पहुंचाने की कोशिश की है।''
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि व्यक्तिगत रूप से, वैवाहिक क्रूरता पत्नी के वैवाहिक घर के आस-पास या चारदीवारी के भीतर होती है और वह अपने माता-पिता या अपने निकट संबंधियों के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ शायद ही इस बारे में कोई बात साझा करती हो। परिणामस्वरूप् आईपीसी की धारा 498 ए के तहत किसी मामले में अदालत के समक्ष मजबूत सबूत उपलब्ध नहीं हो पाते हैं।
पीठ ने टिप्पणी करते हुए कहा कि,''लेकिन यह अभियोजन पक्ष को आरोपों को ठोस, सुसंगत और प्रेरक साक्ष्यों द्वारा साबित करने के बोझ से मुक्त नहीं करता है।''
इसलिए अदालत ने आईपीसी की धारा 498ए के तहत दी गई सजा को रद्द कर दिया है।
मामले का विवरण-
केस का शीर्षक- आलमीन मिया बनाम त्रिपुरा राज्य
केस नंबर-सीआरएल ए (जे) नंबर 33/2019
कोरम-न्यायमूर्ति एस तलपात्रा और न्यायमूर्ति एसजी चट्टोपाध्याय
सूरतरू प्रतिनिधित्व-एडवोकेट बी. मजुमदार (अपीलकर्ता के लिए),अतिरिक्त लोक अभियोजक एस घोष (राज्य के लिए)