आरोपी नहीं जानता था पीड़ित की पहचान, प्रथम दृष्टया एससी/एसटी एक्ट के तहत कोई मामला नहीं बनता : गुजरात हाईकोट ने आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में दी अग्रिम जमानत
गुजरात हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत एक आरोपी व्यक्ति को अग्रिम जमानत देते हुए कहा है कि आरोपी को पीड़ित की पहचान नहीं थी और वह उसकी पहचान के बारे में नहीं जानता था। इसलिए विशेष कानून के तहत गिरफ्तारी से पूर्व जमानत देने के संबंध में लगाई गई रोक इस मामले पर लागू नहीं होती।
न्यायमूर्ति भार्गव डी करिया की पीठ इस मामले में एससीएसटी अधिनियम की धारा 14 ए के तहत दायर एक अपील पर सुनवाई कर रही थी। अपीलकर्ता के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 306(आत्महत्या के लिए उकसाना),धारा 201(सबूत मिटाना ) व 114(जब उकसाने वाला व्यक्ति अपराध के समय उपस्थित हो तो यह माना जाता है कि उसने अपराध किया है )व एससीएसटी एक्ट की धारा 3 (2) (v)के तहत किए गए अपराध के मामले में एफआईआर दर्ज की गई थी। इसी मामले में उसने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के तहत आवेदन दायर कर अग्रिम के लिए प्रार्थना की थी।
एकल पीठ ने कहा कि-
''ऐसा प्रतीत होता है कि अपीलकर्ता मृतक व्यक्ति को नहीं जानता था, जिसका नाम अनिलभाई केशवलाल जोशी था और जो एससीएसटी श्रेणी से संबंधित था। इसके अलावा अपीलकर्ता पर यह आरोप है कि उसने पर सीसीटीवी फुटेज (किसी अन्य आरोपी व्यक्ति के इशारे पर,जिसको पहले ही हाईकोर्ट से चार मई को ही अग्रिम जमानत मिल चुकी है) को डिलिट कर दिया था।''
इस प्रकार पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि हालांकि प्रथम दृष्टया एससीएसटी अधिनियम की धारा 3 (2) (v) के प्रावधान आईपीसी की धारा 306, 201 और 114 के तहत किए गए कथित अपराध के कारण लागू होते हैं। परंतु अपीलकर्ता मृतक व्यक्ति को नहीं जानता था। न ही यह कहा जा सकता है कि प्रथम दृष्टया आईपीसी की धारा 306, 201 और 114 के तहत अपीलकर्ता ने कोई अपराध किया है,चूंकि उस पर सिर्फ यह आरोप है कि उसने सीसीटीवी फुटेज को डिलिट किया था।
पीठ ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के तहत विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए अपीलकर्ता को अग्रिम जमानत दे दी। पीठ ने कहा कि अगर अपीलकर्ता को गिरफ्तार किया जाता है तो उस स्थिति में ,इस अदालत के आदेश के तहत उसे जमानत दे दी जाए।
पीठ ने आदेश देते हुए कहा कि-
''ऐसी परिस्थितियों में, मेरी राय है कि यह शिकायत एससीएसटी अधिनियम के प्रावधानों की प्रयोज्यता के संबंध में एक प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनाती है। इसलिए धारा 18 और 18 ए के तहत लगाई गई रोक लागू नहीं होती है क्योंकि प्रथम दृष्टया कोई ऐसा सामग्री मौजूद नहीं है,जिसके आधार पर अपीलकर्ता की गिरफ्तारी जरूरी हो।''
इस बात पर भी ध्यान दिया गया कि वर्तमान आवेदन 4 जून को हाईकोर्ट के जस्टिस परेश उपाध्याय की एकल पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया गया था, तब न्यायाधीश ने कहा था कि धारा 18-ए को अधिनियम 1989 में जोड़ने के लिए वर्ष 2018 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया था, विशेष तौर पर धारा 18 -ए की उपधारा (2) को जोड़ने के लिए, ''हो सकता है कि यह विचार करने के लिए न्यायालयों के पास खुला विकल्प न हो कि क्या आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के तहत विवेकाधिकार का प्रयोग ऐसे मामलों में किए जाने की आवश्यकता है या नहीं'', और ''इस आवेदन पर विचार नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह सुनवाई योग्य नहीं है।''
4 मई को सह-आरोपी को दी गई अग्रिम जमानत के संबंध में न्यायमूर्ति उपाध्याय ने कहा था कि ''न्यायिक अनुशासन की मांग है कि समन्वय पीठ द्वारा पारित आदेशों का पालन किया जाना चाहिए और कानून के व्यापक सिद्धांतों के आधार पर न्यायालय को अलग राय को नहीं सुनना चाहिए'' और इसी समय '' उन आदेशों का पालन करने और अपने अधिकारों का उपयोग करने से ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जो कानून के तहत निषिद्ध है।''
इस प्रकार उन्हें इस मामले को मुख्य न्यायाधीश के समक्ष विचार के लिए भेज देना चाहिए था या फिर डिवीजन बेंच के समक्ष सूचीबद्ध किया जाना चाहिए था।
जब यह मामला सोमवार को न्यायमूर्ति करिया के समक्ष आया तो एकल पीठ ने 'पृथ्वी राज चैहान बनाम भारत संघ' के मामले में फरवरी माह में शीर्ष अदालत द्वारा दिए गए फैसले की सराहना की। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एससी/ एसटी संशोधन अधिनियम 2018 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था। जो 20 मार्च, 2018 को डॉ सुभाष महाजन के मामले में शीर्ष अदालत द्वारा दिए गए फैसले को रद्द करने या उसके प्रभाव को अमान्य करने के लिए लागू की गई थी क्योंकि इस फैसले ने अधिनियम के प्रावधानों को कमजोर कर दिया था। संशोधन के माध्यम से, अधिनियम 1989 में एक नया खंड 18 ए जोड़ा गया था। जिसने अदालत द्वारा लगाई गई उन आवश्यकताओं (2018 के फैसले में) को खत्म कर दिया था,जिनके तहत गिरफ्तारी करने से पहले अनुमोदन प्राप्त करने व प्रारंभिक जांच करने की बात कही गई थी। इसने अधिनियम के तहत अपराध होने की स्थिति में अग्रिम जमानत पर लगाए गए स्पष्ट प्रतिबंध को भी बहाल कर दिया था।
पृथ्वी राज चौहान मामले में तीन-न्यायाधीशों वाली बेंच ने स्पष्ट किया था कि अगर शिकायत अधिनियम 1989 के प्रावधानों की प्रयोज्यता के लिए एक प्रथम दृष्टया मामला नहीं बना पाती है तो धारा 18 और 18 ए (i) द्वारा लगाई गई रोक लागू नहीं होगी।
एकल पीठ ने यह भी कहा कि-
''इस आदेश के बावजूद, यह जांच एजेंसी के पास यह खुला विकल्प होगा कि वह सक्षम मजिस्ट्रेट के समक्ष अपीलार्थी के पुलिस रिमांड के लिए आवेदन कर सकें। अपीलकर्ता को इस तरह के आवेदन की सुनवाई की पहली तारीख पर मजिस्ट्रेट के सामने मौजूद रहना होगा। यदि मजिस्ट्रेट निर्देश देता है तो उसे उस आवेदन पर होने वाली बाकी सभी सुनवाई के समक्ष भी उपस्थित होना होगा। अभियोजन पक्ष की तरफ से दायर रिमांड की अर्जी पर विचार करते समय आरोपी को न्यायिक हिरासत में मानने के लिए यह उपाय पर्याप्त होगा। हालांकि यदि अभियोजन पक्ष की रिमांड की अर्जी स्वीकार कर ली जाती है तो आरोपी उसके खिलाफ रोक लगाने की मांग कर सकता है,यह आदेश आरोपी के उस अधिकार से पक्षपात नहीं करेगा या उस पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं ड़ालेगा। न ही इस तरह के अनुरोध पर कानून के अनुसार विचार करने के लिए मजिस्ट्रेट की शक्ति प्रभावित होंगी।''
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