एक महिला अपनी इच्छा के मुताबिक आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र, उसकी स्वतंत्रता को न तो अदालत रोक सकती है और न ही उसके माता-पिताः बॉम्बे हाईकोर्ट ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की सुनवाई में कहा
बॉम्बे हाईकोर्ट ने सोमवार को कहा कि एक महिला अपनी इच्छा के मुताबिक आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र है और उसकी स्वतंत्रता को न तो अदालत रोक सकती है और न ही उसके माता-पिता।
जस्टिस एसएस शिंदे और मनीष पितले की खंडपीठ, एमबीए अंतिम वर्ष के एक छात्र द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनवाई कर रहे थे, जिसने अपनी 23 वर्षीय महिला पार्टनर के माता-पिता के खिलाफ याचिका दायर की थी। छात्र ने कोर्ट के समक्ष कहा कि महिला और उसने शुरुआत में मदद के लिए पुलिस से संपर्क किया था, लेकिन पुलिस ने मदद के बजाय महिला को उसके माता-पिता को सौंप दिया।
अदालत ने महिला का पक्ष सुना, जिसने कहा कि वह पिछले पांच साल से पुरुष के साथ संबंध में है और वह अपना शेष जीवन उसी के साथ बिताना चाहती है। जैसे ही उसके माता-पिता को उसके रिश्ते के बारे में पता चला, उन्होंने उसका फोन तोड़ दिया और उसे बाहर जाने से रोक दिया।
जस्टिस शिंदे ने कहा, "महिला वयस्क है और वह अपनी इच्छा के अनुसार आगे बढ़ सकती है। हम उसकी स्वतंत्रता पर लगाम नहीं लगा सकते हैं, न ही उसके माता-पिता ऐसा कर सकते हैं। वास्तव में, उसने बताया है कि उसे 'अनुचित नजरबंदी' में रखा गया है।"
उन्होंने कहा, "18 वर्ष से ऊपर का कोई भी व्यक्ति बिना किसी प्रतिबंध के घूम सकता है, यह कानून है।"
अदालत में युवा जोड़े को अंतिम पंक्ति में बैठने के लिए कहा गया। एक महिला कांस्टेबल ने यह सुनिश्चित किया कि महिला अपने माता-पिता के साथ बैठे, अपने प्रेमी से दूर बैठे। कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए पिता ने कहा कि वह इस रिश्ते से खुश नहीं थे और दोनों की शादी नहीं कराना चाहते थे।
जस्टिस शिंदे और जस्टिस पिटले ने तब उन्हें हिंदी में समझाने की कोशिश की, "हम आपके इरादों और इच्छाओं को समझते हैं लेकिन वह वयस्क है। कल भले ही एक जज भी अदालत का रुख करें, तो भी हम कुछ भी करने में सक्षम नहीं होंगे, अगर बेटी वयस्क होगी।"
अदालत ने याचिका का निस्तारण करते हुए कहा कि महिला वयस्क है और पुलिस को निर्देश दिया कि जोड़े को गंतव्य तक पहुंचने में सुरक्षा प्रदान की जाए।