प्रणाल‌ीगत भेदभाव और लैंगिक बाधाएं महिला वकीलों को बाधित करती हैं, मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल ने संविधान दिवस पर कहा

Update: 2020-11-28 13:53 GMT

जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल द्वारा 'रीइमैजिनिंग एंड ट्रांसफॉर्मिंग द फ्यूचर ऑफ लॉ स्कूल्स एंड लीगल एजुकेशन: कॉन्फ्लुएंस ऑफ आइडियाज एंड बियॉन्ड COVID-19' विषय पर आयोजित वैश्विक अकादमिक सम्मेलन शुक्रवार को संपन्न हुआ। सम्‍मेलन 25 नवंबर, 2020 को शुरू हुआ ‌था।

सम्मेलन के दरमियान, संविधान दिवस फोरम में, मुख्य वक्ता- जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल ने कानूनी शिक्षा और पेशे में महिलाओं के लिए स्थान के संबंध में महत्वपूर्ण टिप्पण‌ियां की।

उन्होंने कहा, "जबकि अग्रणी लॉ स्कूलों से स्नातक और कानूनी पेशे में जूनियर स्तर पर काम करने वाली महिलाओं की संख्या, पुरुष समकक्षों के बराबर है, लेकिन यह कार्यस्थल पर या बाद में उच्च पदों पर समान प्रतिनिधित्व में नहीं बदलता है। उनकी ऊपर की गतिशीलता प्रणालीगत भेदभाव के कारण बाधित होती है। कानूनी पेशे में लिंग विविधता विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, महिलाओं की उपस्थिति समानता, निष्पक्षता और न्याय प्रणाली की तटस्‍थता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, खासकर वंचित समूहों के बीच।"

"कांच की छत एक अभेद्य अवरोध के अस्तित्व का संकेत देती है, जिसने महिलाओं की ऊर्ध्वाधर गतिशीलता को अवरुद्ध किया है। इस अवरोध के नीचे, महिलाओं तरक्की कर रही हैं, इससे परे वे नहीं हैं। यह सर्वव्यापी कांच की छत पूरे न्यायक्षेत्र में महिलाओं को रोकती हैं, और पूरी दुनिया में उनके साथ असमान व्यवहार का कारण बनती है।"

अतीत पर विचार करते हुए, जस्टिस मित्तल ने कानूनी पेशे के इतिहास की चर्चा की और कहा कि "प्रतिगामी लिंग दृष्टिकोण" ने इसका स्‍थान ले लिया है। हाल के दिनों में, भारत की शीर्ष कानून फर्मों में केवल 30% महिला साझेदार हैं। इनमें से एक तिहाई कंपनियों का लिंग अनुपात 20% से कम है।

उन्होंने कहा, "भारत में उच्च न्यायालयों के 673 न्यायाधीशों में से केवल 73 महिलाएं हैं। मैं भारत के 28 उच्च न्यायालयों में से एकमात्र मुख्य न्यायाधीश हूं। 70 वर्षों में जब से उच्चतम न्यायालय की स्थापना हुई है, केवल 8 महिलाएं ही न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त हो पाई हैं। वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में 30 न्यायाधीशों में से केवल दो महिलाएं हैं। अपने पांच दशक के अस्तित्व में, उच्चतम न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ताओं के रूप में महिलाओं का पदनाम भी विवादास्पद है। लैंगिक पक्षपात लॉ फर्म में व्यापक रूप से प्रचलित हैं। लॉ फर्मों में 81 महिलाओं के साथ किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि महिलाओं को गैरचुनौतीपूर्ण कार्य आवंटित किया जा रहा है और पुरुष समकक्षों की तुलना में कम फीस पर संतोष करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, और कॉर्पोरेट पदों पर लाभ और पदोन्नति से वंचित किया जा रहा है। इसके अलावा, 74% महिलाओं ने साक्षात्कार में माना कि नियोक्ताओं ने संगठन के भीतर महिलाओं को बढ़ावा देने या मेंटर‌िंग करने के लिए बहुत कम प्रयास किए हैं। जाहिर है, महिलाओं को कानूनी पेशे में बहुत कम प्रतिनिधित्व दिया जाता है।"

इस अवसर पर प्रोफेसर (डॉ) सी राज कुमार, संस्थापक कुलपति, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी और जेजीएलएस के संस्थापक डीन ने कहा, "सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक है विविधता और महिलाओं का नेतृत्व किस हद तक कानूनी पेशे, कानूनी शिक्षा और न्यायपालिका को बदलने और प्रभावित करने जा रहा है। कानून में महिलाओं की भूमिका की कम जांच की गई है। प्रतिनिधित्व का प्रश्न और वास्तव में, भारत में कानूनी पेशे में महिलाओं की भागीदारी का सवाल कई बहसों का विषय रहा है। भारत में और विदेशों के कई लॉ स्कूलों में, प्रवेश के समय, लगभग 50% महिला छात्र होती हैं, लेकिन जब हम कानूनी पेशे को देखते हैं तो वहां बहुत असमानताएं पाते हैं। असली सवाल यह है कि हम महिलाओं के खिलाफ प्रचलित संस्थागत भेदभाव की चुनौती को पहचानकर भारतीय लोकतंत्र और भारतीय कानूनी पेशे का भविष्य को किस हद तक आकार दे सकते हैं।"

कानूनी शिक्षा और कानूनी पेशे में महिला नेतृत्व विषय पर आयोजित सत्र में, पैनल की संचालक, प्रोफेसर दीपिका जैन, वाइस डीन, जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल, ने कुछ प्रमुख कानून शिक्षाविदों और कॉर्पोरेट वकीलों के साथ कानूनी पेशे और कानूनी शिक्षा के विविधीकरण की आवश्यकता और महत्व पर चर्चा की।

इस सत्र में प्रोफेसर संध्या ड्रू, वरिष्ठ व्याख्याता और सहायक डीन (इंटरनेशनल स्टूडेंट्स और एक्सचेंज), द सिटी लॉ स्कूल सिटी यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन यूनाइटेड किंगडम ने कहा कि हालांकि उन्हें शैक्षिक अवसरों और करियर ग्रोथ तक पहुंच थी, फिर भी क्रॉस-जेनरेशनल महिलाओं की बेहतर समझ को बढ़ावा देने के लिए कांच की छत को चकनाचूर करने के विचार को देखें जाने की आवश्यकता थी।

उन्होंने कहा, "जीवन के प्रत्येक चरण में, महिलाओं को अलग-अलग बाधाओं का सामना करना पड़ता है। लगभग सभी युवतियों को या तो छेड़ा गया है या यौन उत्पीड़न किया गया है, जीवन के अगले चरण में महिलाओं को लंबे दिनों तक काम करने या बच्चे के बीच चयन करना पड़ता है। कभी-कभी वे परिवार के लिए बड़ी कंपनियों को छोड़ देती हैं। यह कानून में महिलाओं के विकास के बारे में नहीं है, यह महिलाओं को विकसित करने के लिए कानून में बदलाव के बारे में भी है।"

प्रोफेसर (डॉ) वेद कुमारी, पूर्व डीन और दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय की प्रमुख और दिल्ली न्यायिक अकादमी की पूर्व अध्यक्ष ने भी सहमति व्यक्त की कि संस्थागत स्तर पर महिलाओं के खिलाफ कानूनी पेशे में भेदभाव नहीं करने के लिए कोई प्रणालीगत परिवर्तन नहीं किया गया है।

उन्होंने कहा, "छोटे कानूनी संस्थानों में, महिला छात्र 30% से कम हैं। हम कानून शिक्षा के हिस्से के रूप में लिंग संबंधी अध्ययन नहीं सिखाते हैं। कानूनी शिक्षा में एक आवश्यक घटक के रूप में विविधता को शामिल करना चाहिए और पाठ्यक्रम में शामिल होना चाहिए।"

निशीथ देसाई एसोसिएट्स के नई दिल्ली कार्यालय की पार्टनर और प्रमुख सुश्री प्रतिभा जैन ने भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय फर्मों में कॉरपोरेट लॉ के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति के बारे में बताया और कहा कि कुछ विशिष्ट लक्षण अक्सर लिंग से जुड़े होते हैं। उन्होंने कहा, "भारत में निजी कॉरपोरेट फर्म अभी नवजात हैं, लेकिन उनके पास नेतृत्व की भूमिकाओं में महिलाएं हैं। यह कहना नहीं है कि लिंग आधारित मुद्दे मौजूद नहीं हैं, वास्तव में महिलाओं के खिलाफ अप्रत्यक्ष पूर्वाग्रह हैं। कानून स्कूलों और विश्वविद्यालयों को इन अप्रत्यक्ष पूर्वाग्रहों के बारे में छात्रों को सिखाने की जरूरत है। हमें अपनी आवाज जरूर उठानी चाहिए ताकि अगली पीढ़ी को इससे लाभ मिल सके।"

जेजीएलएस एंड एसोसिएट, शार्दुल अमरचंद मंगलदास की पूर्व छात्रा सुश्री रवीना सेठिया ने कहा, माना जाता है कि "महिलाओं को एक 'निश्चित' तरीके से व्यवहार करना चाहिए। उन्हें बहुत आक्रामक या दयालु या समझौतावादी के रूप में देखा जाता है। वे सबसे बड़ी भूमिका यह निभा सकती हैं कि इन रूढ़ियों को तोड़ें। धारणा को कम उम्र से संशोधित करने की आवश्यकता है। शैक्षिक संस्थान लिंग परिवर्तन को दूर करने के लिए एक मेंटरशिप प्रोग्राम के माध्यम से इस बदलाव को कर सकते हैं। "

जस्टिस मित्तल ने निष्कर्ष निकाला कि लचीले कामकाज के घंटे और शत्रुतापूर्ण कार्य वातावरण एक महिला के लिए कार्य और जीवन के बीच संतुलन बैठाने में अधिक कठिन पैदा करते हैं।

सुश्री गीता रामशरण, एडवोकेट, मद्रास उच्च न्यायालय, ने अध्यक्षीय भाषण दिया और प्रोफेसर झूमा सेन, एसोसिएट प्रोफेसर और एसोसिएट डायरेक्टर, सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स स्टडीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी ने भी कार्यक्रम का संबोध‌ित किया।

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