यूपी पुलिस ने सांप्रदायिक तत्वों के खिलाफ खड़े होने वाले धर्मनिरपेक्ष लोगों को दबाने की रणनीति पर एफआईआर दर्ज की : मोहम्मद जुबैर ने सुप्रीम कोर्ट से कहा

Update: 2022-07-07 16:00 GMT

फैक्ट चेकिंग वेबसाइट ऑल्ट न्यूज (Alt News) के सह-संस्थापक, मोहम्मद जुबैर (Mohammed Zubair) ने हिंदू संतों को 'हेट मोंगर्स यानी नफरत फैलाने वाले' कहने को लेकर दर्ज एफआईआर रद्द करने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) का रुख किया।

जुबैर ने एक ट्वीट किया था ,जिसमें उन्होंने कथित तौर पर 3 हिंदू संतों- यति नरसिंहानंद सरस्वती, बजरंग मुनि को 'हेट मोंगर्स यानी नफरत फैलाने वाले' कहा था। इसके खिलाफ यूपी पुलिस ने एफआईआर दर्ज किया था। इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट एफआईआर रद्द करने से इनकार कर दिया था। इसी के खिलाफ जुबैर ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।

उत्तर प्रदेश पुलिस ने उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 295-ए (जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कृत्य, जिसका उद्देश्य किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को उसके धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करना) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 की धारा 67 (इलेक्ट्रॉनिक रूप में अश्लील सामग्री को प्रकाशित या प्रसारित करना) के तहत एफआईआर दर्ज की थी।

जस्टिस इंदिरा बनर्जी औ जस्टिस जेके माहेश्वरी की अवकाश पीठ के समक्ष सीनियर एडवोकेट कॉलिन गोंजाल्विस ने याचिका का उल्लेख किया जिसमें जुबैर पर दर्ज एफआईआर पर रोक लगाने और गिरफ्तारी से सुरक्षा की मांग की गई।

पीठ से मामले को तत्काल सूचीबद्ध करने का आग्रह करते हुए सीनियर वकील ने कहा कि एफआईआर पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि कोई अपराध नहीं था और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जुबैर को गिरफ्तारी से पहले जमानत देने से इनकार कर दिया।

पीठ ने कहा कि मामले को कल सूचीबद्ध किया जा सकता है, जो भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा असाइनमेंट के अधीन है।

पीठ ने आदेश में कहा,

" भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा असाइनमेंट के अधीन मामले को कल सूचीबद्ध किया जा सकता है।"

याचिका में यह तर्क दिया गया है कि जुबैर को परेशान करने के लिए एफआईआर दर्ज की गई है, उसी में आरोप झूठे और निराधार हैं और उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 295 ए और आईटी अधिनियम की धारा 67 के तहत अपराध नहीं बनते।

आगे यह तर्क दिया गया है कि ट्वीट में कहीं भी याचिकाकर्ता ने किसी भी यौन कृत्य का उल्लेख नहीं किया या ऐसा कुछ भी नहीं कहा जो एक उचित और विवेकपूर्ण पाठक के मन में यौन इच्छाएं जगा सके जो कि आईटी अधिनियम की धारा 67 के तहत अपराध के लिए पूर्व आवश्यकता है।

याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि याचिकाकर्ताओं की ओर से भारत के किसी भी वर्ग के नागरिकों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से अपमान या अपमान करने का प्रयास नहीं किया गया है, इसलिए आईपीसी की धारा 295 ए के तहत मामला भी नहीं बनाया गया है।

याचिका में कहा गया है कि अभद्र भाषा के खिलाफ एफआईआर दर्ज करना "पुलिस की नई रणनीति" है, इसलिए यह जरूरी है कि यह माननीय न्यायालय इस नई रणनीति को समझे और इस पर शुरू में ही रोक लगा दे ताकि धर्मनिरपेक्ष सामाजिक सक्रियता अपने रास्ते पर जारी रहे जो समाज में सांप्रदायिकता के खिलाफ खड़े होने के लिए सबसे आवश्यक भूमिका निभाती है।"

याचिका में कहा गया है , "यह (एफआईआर) समाज में धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने के इरादे से किया गया है जो सांप्रदायिक तत्वों के खिलाफ खड़े होते हैं और उनमें डर पैदा करते हैं ताकि वे अब विरोध न करें।"

हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल और अन्य 1992 एआईआर एससी 604, स्वर्ण सिंह और अन्य बनाम राज्य (2008) क्रि एम 4369, यूनियन ऑफ इंडिया बनाम प्रकाश पी हिंदुजा (2003) 6 एससीसी 195 मामलों पर भरोसा रखते हुए तर्क दिया गया कि एफआईआर में आरोप भले ही उनके अंकित मूल्य पर लिए गए हों और यदि पूरी तरह से स्वीकार किए जाते हैं तो प्रथम दृष्टया किसी अपराध का खुलासा नहीं करते हैं।

याचिका में कहा गया है कि कि पुलिस ने उचित जांच और दिमाग का इस्तेमाल किये बिना एफआईआर दर्ज की है।

" एफआईआर में लगाए गए आरोप इतने बेतुके और स्वाभाविक रूप से असंभव हैं जिसके आधार पर कोई भी विवेकपूर्ण व्यक्ति कभी भी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकता है कि आरोपी के खिलाफ कार्रवाई के लिए पर्याप्त आधार हैं। उक्त एफआईआर दर्ज करना स्वतंत्र पत्रकारिता को डराने, चुप कराने और दंडित करने के इरादे से कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है और याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई भी दंडात्मक कार्रवाई न्याय के गंभीर गर्भपात के बराबर होगी।"

याचिका में यह भी कहा गया है कि एफआईआर में इस आपराधिक अपराध को शामिल करने से पता चलता है कि राज्य ने याचिकाकर्ता के खिलाफ कितनी मनमानी, द्वेषपूर्ण और मनमानी तरीके से कार्रवाई की है।

याचिका में आगे कहा गया है ,

" पुलिस याचिकाकर्ता को गिरफ्तार करने की धमकी दे रही है और याचिकाकर्ता का जीवन और स्वतंत्रता खतरे में है।"

यह आगे कहा गया है कि यह पहली बार नहीं है कि जुबैर को उनके तथ्य जांच ट्वीट्स के लिए परेशान या डरा दिया गया है और अक्सर वह ऑनलाइन ट्रोलिंग, गालियों, धमकियों और उनके पोस्ट से सहमत नहीं होने वाले लोगों से अपमानित होते हैं।

याचिका कानून के निम्नलिखित प्रश्न उठाए गए हैंं

1. क्या एफआईआर इस बात को ध्यान में रखते हुए कानून की नज़र में स्थिर है कि कथित अपराधों के किसी भी आवश्यक तत्व को कल्पना की सीमा से बाहर नहीं किया जा सकता है?

2. क्या हाईकोर्ट ने एफआईआर की जांच जारी रखने की अनुमति देने में गलती की है, भले ही कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता हो?

3. क्या याचिकाकर्ता द्वारा किया गया ट्वीट आईपीसी की धारा 295 की कसौटी पर खरा उतरता है, अर्थात क्या किसी धर्म का अपमान करने का जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादा स्पष्ट होता है?

4. क्या एस. रंगनाथन बनाम यूओआई [1989 2 एससीसी 574] में माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मद्देनजर, आक्षेपित एफआईआर को कायम रखा जा सकता है?


केस टाइटल: मोहम्मद जुबैर बनाम यूपी राज्य और अन्य |

डायरी नंबर । 18601/2022


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