किसी विशेष मुवक्किल के लिए पेश होने के कारण वकील को निशाना बनाना अनुचितः जस्टिस लोकुर
जस्टिस (रिटायर्ड) मदन बी लोकुर, ने दिल्ली हाईकोर्ट वोमेन लायर्स फोरम और वोमेन इन क्रिमिनल लॉ एसोसिएशन की ओर से आयोजित एक वेबिनार में कहा, "मुझे लगता है कि एक विशेष मुवक्किल के लिए पेश होने के कारण एक वकील को निशाना बनाना अनुचित है।"
उन्होंने कहा, "अगर एक वकील सैकड़ों COFEPOSA मामलों को देखता है तो आप यह नहीं कह सकते कि वह भी एक स्मगलर है। मुझे नहीं लगता कि एक जज को कभी एक वकील और मुवक्किल के रिश्ते में शामिल होना चाहिए।"
शुक्रवार, 20 नवंबर को आयोजित वेबिनार में जस्टिस लोकुर के साथ एडवोकेट वारिशा फरासात, तारा नरूला, शालिनी गेरा और सौजन्या शंकरन ने बातचीत की और उन्होंने "डिफेंडिंग लिबर्टीज" विषय पर विचार-विमर्श किया।
बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका
सत्र की शुरुआत नरूला ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के महत्व को रेखांकित करते हुए की और उन्होंने जस्टिस लोकुर को उसी पर प्रकाश डालने के लिए आमंत्रित किया।
जस्टिस लोकुर ने कहा, "मेरे विचार में, बंदी प्रत्यक्षीकरण का उपयोग न्यायालयों द्वारा उदारतापूर्वक किया जाना चाहिए। MISA, COFEPOSA और अब NSA और अन्य के तहत निवारक निरोध के मामलों में किसी को बिना किसी मुकदमे के सालों तक हिरासत में रखा जाता है।"
उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ऐतिहासिक रूप से इस रिट की अनुमति देने में बहुत उदार रहा है।
"यदि आप फैसलों को देखते हैं, तो बहुत कम मामले ऐसे हैं, जिनमें उनकी सुनवाई नहीं की गई। वास्तव में, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि यदि एक याचिका खारिज की जाती है तो एक और बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की जा सकती है। उन्होंने यह भी कहा है कि याचिका दायर करने की भी जरूरत नहीं है, केवल एक पोस्टकार्ड भी भेजा जा सकता है। व्याख्या उदार रही है। इसे समझने के अलग-अलग तरीके हैं और मैं इसकी सबसे व्यापक संभव व्याख्या दूंगा।
एडवोकेट वारिशा फरासात को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं पर अपने व्यापक अनुभवों की चर्चा करते हुए दो बिंदुओं की जानकारी दी। फरासात ने संक्षेप में बताया कि बंदी बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट समय-संवेदनशील होती हैं और न्यायालयों का यह कर्तव्य है कि वे इन्हें गंभीरता से लें क्योंकि ऐसी याचिकाओं को दायर करने वाले अधिकांश लोगों के पास वैकल्पिक उपाय नहीं होता है।
उन्होंने राज्य को नोटिस देने की आवश्यकता पर जोर दिया।
फरासात ने कहा, "एक और बात यह है कि राज्य को नोटिस देना चाहिए। यह ऐसी चीज है जिसकी कमी हो सकती है क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा खुद के दिशानिर्देशों के विपरीत है। कठिन सवालों को राज्य के सामने रखना चाहिए।"
एडवोकेट शालिनी गेरा ने तब कहा कि एक कार्यात्मक न्यायिक प्रणाली की आवश्यकता है, और लोगों का भरोसा कायम करने के लिए हैबियस कॉर्पस की प्रभावशीलता की आवश्यकता है।
उन्होंने सुकमा स्थित आदिवासी कार्यकर्ता पोडियम पांडा की हिरासत से संबंधित एक मामले का अपना अनुभव सुनाया, जिसने अदालत में पेश होने के बाद पुलिस प्रताड़ना से इंकार कर दिया था। बाद में उसने अपनी पत्नी को बताया था कि उसने कोर्ट में झूठ बोला था, क्योंकि उसे कोर्ट पर भरोसा नहीं था।
निवारक निरोध संबंधित मामलों में वकीलों को कैसी रणनीति बनानी चाहिए?
एडवोकेट सौजन्या शंकरन ने दिल्ली दंगों का जिक्र किया और उन्होंने बताया कि उनके कई मुवक्किलों पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत आरोप लगाए गए। उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता हासिल करना बेहद महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में, उन्होंने इस प्रकार की कठोर प्रक्रिया से निपटने के रणनीतिक तरीकों पर गेरा और फरासात से सवाल पूछा।
गेरा ने कहा, "यह प्रक्रिया है, जो आपको मारती है।...यहां तक कि बरी हुए लोगों के साथ भी, ऐसा नहीं है कि हम लोगों को कम समय में बाहर निकालने में कामयाब रहे। हर मामला उस बिंदु पर दबाव की जरूरत पर निर्भर करता है। यूएपीए एक बहुत ही राजनीतिक मामला रहा है, हमेशा। मैं बस इतना ही कह सकती हूं, आपको कोर्ट को समझना होगा और कभी-कभी, आपको कुछ चीजों को छोड़ना होगा।"
इस पर, फरासात ने कहा कि कई बार ऐसा होता है कि राज्य सरकार बहुत ही मोटी चार्जशीट दाखिल करती है जो 10,000 पन्नों में होती है, लेकिन उनमें कोई ठोस बात नहीं होती है।
उन्होंने कहा, "वकीलों के रूप में, हमें भयभीत नहीं होना चाहिए। इसके बहुत से इलेक्ट्रॉनिक प्रमाण है। हमें उन्हें ध्यान से देखना चाहिए, भले ही उनका कोई अर्थ न हो। आपको इन सभी पृष्ठों के पीछे जाना होगा और पता लगाना होगा कि क्या मुकदमा चल रहा है। एक और सीख यह है कि अपनी लीक पर बने रहे हैं और धैर्य रखें। UAPA के मामलों में सालों लगता है। लेकिन, किसी भी अन्य मामले की तरह, आपको लीक पर रहना होगा।"
मीडिया ट्रायल
सत्र में इस बात पर भी बातचीत हुई कि वकीलों को संवेदनशील मामलों में अभियोजन पक्ष द्वारा साक्ष्य लीक करने के तरीके का पता लगाना चाहिए।
इस मामले पर, जस्टिस लोकुर ने कहा, "आपको आग से लड़ने के लिए पानी की इस्तेमाल करना चाहिए। आपको न्यायालय को बयानों के बारे में बताना चाहिए। न्यायालय इसके लिए जिम्मेदार है। आप या मीडिया नहीं। ये व्हाट्सएप संदेश और डिस्क्लोज़र स्टेटमेंट कहां से आते हैं? यह अभियोजन पक्ष है। लेकिन, यह कोर्ट की जिम्मेदारी है कि उन्हें लाइन पर लाए।"
"कार्यकर्ता-वकील" के रूप में चिन्हित करना
शंकरन ने कहा कि कैसे कुछ वकील, जो एक निश्चित प्रकार के मामलों को उठाते हैं, उन्हें "कार्यकर्ता-वकील" के रूप में चिह्नित किया जाता है।
उन्होंने पूछा, "निश्चित रूप से, विपक्षी वकील ऐसी टिप्पणियों करते हैं। लेकिन, हाल ही में, न्यायालय भी इस तरह के बयान दे रहे हैं और अभिप्रेरणा दे रहे हैं। ये युवा वकील, विशेष रूप से महिलाओं को हतोत्साहित करते हैं। आप एक कार्यकर्ता और वकीलों दोनों लीक पर कैसे चल सकते हैं?"।
फरासात ने कहा कि यह रुझान बढ़ रहा है और चिंताजनक है। हालांकि, उन्होंने कहा कि यह कदम उठाने की जिम्मेदारी बार पर है, विशेष रूप से बार के वरिष्ठ सदस्यों पर...
जस्टिस लोकुर ने कहा, "विचारधारा महत्वपूर्ण है, लेकिन यह आपके पेशेवर काम के रास्ते में नहीं आनी चाहिए। क्योंकि इसका मतलब है कि अगर आप एक ऐसा व्यक्ति आपके सामने आता है, जो वैचारिक रूप से अलग है तो तो आप उसका बचाव नहीं करेंगे। मुझे लगता है कि विचारधारा और पेशे को अलग-अलग रखा जाना चाहिए। कुछ उदाहरण हो सकते हैं, जहां आप पा सकते हैं कि विचारधारा के लिए किसी विशेष बिंदु पर बलिदान करना बेहतर है, लेकिन यह एक दुर्लभ अवसर है। "
जजों द्वारा वकीलों की आलोचना के पहलू पर, जस्टिस लोकुर ने इस प्रथा को अनुचित बताया।
गेरा ने कहा, "राज्य द्वारा असंतुष्टों के साथ किए जाने वाले व्यवहार में काफी बदलाव आया है" और, "जिहादी वकील" और "नक्सली वकील" जैसे शब्दों को प्रचलित किया जा रहा है।
"अर्बन नक्सल" पर हालिया वेबिनार को याद करते हुए, उन्होंने कहा कि मानवाधिकार वकीलों को उपद्रवियों के रूप में देखा जा रहा है, यहां तक "किसी ऐसे को, जिसे राज्य पसंद नहीं करता, उसे को कानूनी सुरक्षा प्रदान करना, आतंकी कार्य बन गया है।
अनुच्छेद 32 और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को "हतोत्साहित करना"
भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित मामलों की सुनवाई करते हुए की गई हालिया टिप्पणी कि अनुच्छेद 32 याचिकाओं को हतोत्साहित किया जा रहा था, पर जस्टिस लोकुर ने कहा,
"मुझे नहीं पता कि वे ऐसा क्यों कहते हैं, लेकिन मैं कल्पना करता कि ऐसा इसलिए कहा गया है क्योंकि इस अनुच्छेद के तहत मामलों का बोझ बढ़ रहा है। मुझे अनुमान है कि इसका मतलब शायद यह हो सकता है कि इस मामले को स्थानीय समझ की आवश्यकता होगी। शायद यही है सीजेआई के ध्यान में था। लेकिन, निश्चित रूप से, यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मामलों पर लागू नहीं होता है।
एक सवाल का जवाब देते हुए कि वरवरा राव, स्टेन स्वामी और अन्य मानवाधिकार रक्षकों जैसे मामलों से निपटने के दौरान न्यायालय "कटु" क्यों रहे हैं, गेरा ने कहा - "जब एक आतंकवाद विरोधी कानून होता है, तो बार कोई भी राहत पाने के लिए पैमाना काफी ऊंचा हो जाता है। यदि आपके खिलाफ कोई गंभीर आरोप है, तो न्यायालय की पुलिस को वजन देने की प्रवृत्ति रही है। हमने इसे बार-बार देखा है। "
फरासात ने कहा कि पिछले 4-5 वर्षों में, असंतुष्टों, या जिसे सरकार असुविधाजनक मानती है, उसके खिलाफ सामान्य एफआईआर में यूएपीए को जोड़ा जा रहा है।
उन्होंने कहा, "यूएपीए इसलिए जोड़ा गया है क्योंकि धारा 43D(5) के तहत जमानत देने पर रोक है, जिससे लोगों पर इससे निशाना साधा जाता है। ऐसी स्थितियों में, शुरुआत से ही दुर्भावाना होती है.."