सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के ओखला गांव में सार्वजनिक भूमि पर अवैध निर्माणों को ध्वस्त करने का निर्देश दिया
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (8 मई) को दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) और दिल्ली सरकार को आदेश दिया कि वे दिल्ली के ओखला गांव में खसरा नंबर 279 में 4 बीघा से अधिक सार्वजनिक भूमि पर फैले अनधिकृत निर्माणों को कानून के अनुसार 3 महीने के भीतर ध्वस्त करें।
जस्टिस अभय एस. ओक और जस्टिस उज्ज्वल भुयान की खंडपीठ ने दिल्ली में सार्वजनिक भूमि पर अनधिकृत निर्माण और अतिक्रमण पर अपने 2018 के निर्देशों के उल्लंघन के संबंध में अवमानना याचिका पर सुनवाई करते हुए यह आदेश पारित किया।
कोर्ट ने कहा कि किसी भी तरह के विध्वंस से पहले संबंधित व्यक्तियों को 15 दिन का नोटिस दिया जाना चाहिए और जिन लोगों को विध्वंस नोटिस प्राप्त होता है, वे कानून के अनुसार कानूनी कदम उठाने के लिए स्वतंत्र हैं।
न्यायालय ने कहा,
"जब हम कानून की उचित प्रक्रिया कहते हैं तो हम यह स्पष्ट करते हैं कि विध्वंस की कार्रवाई करने से पहले सभी संबंधित व्यक्तियों को 15 दिन पहले नोटिस दिया जाना चाहिए। DDA और राज्य सरकार दोनों को 3 महीने के भीतर अनुपालन हलफनामा दाखिल करना होगा। जो कब्जाधारी विध्वंस के नोटिस से व्यथित हैं, वे कानून के अनुसार कार्यवाही करने के लिए स्वतंत्र हैं।"
एमसी मेहता बनाम भारत संघ में 2018 के आदेश में न्यायालय ने पाया कि दिल्ली में सार्वजनिक भूमि और अनधिकृत कॉलोनियों में अनधिकृत निर्माण बड़े पैमाने पर हो रहा था। न्यायालय ने पाया कि इन क्षेत्रों में निर्माण मानदंडों को लागू नहीं किया जा रहा था, जिसके कारण अनधिकृत कॉलोनियों के साथ अधिकृत कॉलोनियों की तुलना में अधिक अनुकूल व्यवहार किया जा रहा था।
न्यायालय ने अनधिकृत कॉलोनियों और सार्वजनिक भूमि पर निर्माण गतिविधियों पर पूरी तरह से रोक लगाने का निर्देश दिया और अनुपालन की निगरानी के लिए टास्क फोर्स का गठन किया था। वर्तमान अवमानना याचिका ओखला गांव के खसरा नंबर 279 में भूमि पर अतिक्रमण और अनधिकृत कब्जे के संबंध में दायर की गई।
DDA ने 15 मार्च, 2025 को अपने हलफनामे में कहा कि वह जमीन पर कब्जा न मिलने के कारण तोड़फोड़ की कार्रवाई नहीं कर सकता। उसने भूमि अधिग्रहण कलेक्टर/भूमि एवं भवन विभाग को 3 बीघा और 8 बिस्वा क्षेत्र सौंपने के निर्देश देने की मांग की। हालांकि 21 मार्च, 2025 को न्यायालय ने पाया कि हलफनामे में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि कब्जे के बिना भी तोड़फोड़ क्यों नहीं की जा सकती और DDA के उपाध्यक्ष को ओखला में सार्वजनिक भूमि पर अवैध संरचनाओं को ध्वस्त करने में विफलता के बारे में बताते हुए व्यक्तिगत हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया।
17 अप्रैल, 2025 को न्यायालय ने पाया कि DDA के उपाध्यक्ष विजय कुमार सिंह द्वारा दायर हलफनामे में कहा गया कि DDA तब तक कार्रवाई नहीं कर सकता, जब तक कि जमीन उसे सौंप न दी जाए। इसके मद्देनजर न्यायालय ने बुधवार को DDA को अपने क्षेत्र से अवैध संरचनाओं को हटाने और राज्य सरकार को शेष क्षेत्र से अवैध संरचनाओं को हटाने का निर्देश दिया।
न्यायालय ने पाया कि खसरा संख्या 279 का सीमांकित क्षेत्र 34 बीघा और 8 बिस्वा है। इसमें से 13 बीघा और 14 बिस्वा खाली है। इस पर कोई कार्रवाई करने की आवश्यकता नहीं है। 11 बीघा और 11 बिस्वा का एक अन्य हिस्सा उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग की सीमा में आता है। इसलिए इस पर कोई कार्रवाई करने की आवश्यकता नहीं है।
न्यायालय ने पाया कि 9 बीघा और 3 बिस्वा क्षेत्र में अवैध निर्माण किया गया। न्यायालय ने दर्ज किया कि दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) के पास इस क्षेत्र के 5 बीघा और 15 बिस्वा का कब्जा है। इसमें से 3 बीघा और 5 बिस्वा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (अनधिकृत कॉलोनियों में निवासियों के संपत्ति अधिकारों की मान्यता) विनिय 2019 के दायरे में आते हैं, जिसे आमतौर पर पीएम-उदय योजना के रूप में जाना जाता है। शेष 2 बीघा और 10 बिस्वा भूमि जो पीएम-उदय योजना के दायरे से बाहर है, उसको खाली करने का निर्देश दिया गया। न्यायालय ने DDA को कानून के अनुसार इस क्षेत्र में अनधिकृत संरचनाओं को ध्वस्त करने का आदेश दिया।
शेष 3 बीघा और 8 बिस्वा भूमि के संबंध में, जिस पर DDA का कब्जा नहीं है, न्यायालय ने दर्ज किया कि इसमें से 1 बीघा और 8 बिस्वा भूमि पीएम-उदय योजना के अंतर्गत आती है जबकि शेष भूमि इसके दायरे से बाहर है।
पीएम-उदय योजना के अंतर्गत नहीं आने वाले हिस्से के लिए न्यायालय ने राज्य सरकार को कानून के अनुसार ध्वस्तीकरण की कार्यवाही शुरू करने का निर्देश दिया।
न्यायालय ने कहा,
"हमने राज्य सरकार को निर्देश जारी किया, क्योंकि 2 बीघा भूमि का कब्जा DDA को नहीं सौंपा गया।"
याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता अवमानना याचिका को आगे नहीं बढ़ाना चाहता। इसलिए न्यायालय ने मामले को याचिकाकर्ता द्वारा दायर की गई याचिका के बजाय स्वप्रेरणा याचिका के रूप में जारी रखने का निर्णय लिया।
न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि DDA या राज्य सरकार द्वारा जारी किसी भी नोटिस में याचिकाकर्ता का नाम उल्लेखित नहीं किया जाना चाहिए।