गुजरात हाईकोर्ट का आदेश, 'टू फिंगर टेस्ट' महिला की निजता और सम्मान का हनन, असंवैधानिक

Update: 2020-01-29 09:37 GMT

Gujarat High Court

गुजरात हाईकोर्ट ने कहा कि कि बलात्कार के मामले में पीड़िता के कौमार्य/सहमति के निर्धारण के लिए किया जाने वाला टू-फिंगर टेस्ट 'पुरातन और अप्रचलित' तरीका है और असंवैधानिक है।

कोर्ट ने कहा कि टू-फिंगर टेस्ट पीड़िता के निजता, शारीरिक और मानसिक निष्ठा और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन है।

अदालत ने कहा,

"हमारा प्रयास है कि ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ चिकित्सा जगत को याद दिलाया जाए कि 'टू-फिंगर टेस्ट' असंवैधानिक है, क्योंकि यह बलात्कार पीड़िता के निजता, शारीरिक और मानसिक निष्ठा और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है। यदि कोर्ट के समक्ष ऐसा कोई भी मेडिकल सर्टिफिकेट आए, जिसमें इस टेस्ट का संदर्भ हो तो उसे तुरंत संज्ञान लेना चा‌हिए और मामले में जरूरी कार्रवाई करनी चाहिए।"

जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस भार्गव डी करिया की पीठ के अनुसार, टू फिंगर टेस्ट भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 146 के प्रत्यक्ष विरोध में है, जिसका कहना है कि "बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के मामले के पीड़िता के सामान्य चरित्र पर सवाल उठाने की अनुमति नहीं होगी।"

"टू-फिंगर टेस्ट, पीड़ित के यौन इतिहास के कारण, सहमति के बारे में चिक‌त्‍सकीय राय कायम करने के बजाय पूर्वाग्रह ही कायम करता है।"

बेंच ने कहा-

"... यौन उत्पीड़न के मामले में यह टेस्ट खुद परीक्षण के सबसे अवैज्ञानिक तरीकों में से एक है और इसका कोई फॉरेंसिक महत्व नहीं है। यौन उत्पीड़न से पहले शारी‌रिक संबंध में प‌ीड़िता के शामिल होने का इस बात से कोई लेनादेना नहीं है कि उसने यौन उत्पीड़न के मामले में सहमति दी थी या नहीं। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 155, बलात्कार पीड़ित की विश्वसनीयता को इस आधार संदेह करने की अनुमति नहीं देती है कि वह समान्यतया अनैतिक चरित्र की है।"

बेंच ने ये टिप्पणियां रेप के एक मामले बरी किए जाने की एक अनोखी अपील में की, जिसमें ट्रायल कोर्ट ने पीड़िता की उम्र की गणना करने में मामले में काफी देर में अपनी गलती का एहसास किया था। कोर्ट ने पाया कि पीड़िता की उम्र 16 साल से ज्यादा है, इसलिए टू-फिंगर टेस्ट के माध्यम से उसकी सहमति का निर्धारण किया था।

कोर्ट बरी किए जाने का फैसला सुनाने के बाद, सजा के बिंदु पर अभियुक्त और अभियोजन पक्ष की जिरह के बाद, महसूस किया कि पीड़ित नाबालिग थी। इसलिए, पीड़ित की सहमति का निर्धारण महत्वहीन था। ऐसी परिस्थितियों में, ट्रायल कोर्ट ने खुद को असहाय स्थिति में पाया क्योंकि वह बलात्कार के अपराध में गलती से बरी कर देने या अवैध तरीके से बरी कर देने के अपने आदेश की समीक्षा नहीं कर सकता था। इसलिए राज्य की अपील पर, हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट द्वारा 25 साल पहले की गई गलती को सुधार दिया और आरोपी को बलात्कार का दोषी ठहराया। न्यायालय ने उसे 31 जनवरी को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित रहने के लिए कहा है। 31 जनवरी उसे सजा ‌‌दिए जाने की संभावना है।

हाईकोर्ट ने, इंटरनेशनल कोवनंट ऑन इकोनॉमिक, सोशल, कल्चरल, राइट्स, 1966 और यूनाईटेड नेशंस ड‌िक्लेयरेशन ऑफ बेसिक प्रिंस‌िपल्स ऑफ जस्टिस फॉर विक्टिम्स ऑफ क्राइम एंड एब्यूज़ ऑफ पॉवर 1985 के दाय‌ित्वों और संवैधानिक दा‌‌यित्वों की याद द‌िलाते हुए कहा कि-

"दुष्कर्म पीड़िता कानूनी उपचार की हकदार है, जिससे उन्हें मानसिक पीड़ा न हो, शारीरिक, मानसिक निष्ठा और गरिमा का उल्लंघन न हो। चिकित्सा प्रक्रियाओं ऐसी हों, जिनसे सहमति के अधिकार का सम्मान किया जाए। ऐसी चिकित्सा प्रक्रियाएं न की जाएं, जो क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक हों। राज्य का दायित्व है कि वह यौन हिंसा से बचे लोगों को ऐसी सेवाएं उपलब्ध कराए। उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उचित उपाय किए जाएं और उनकी गोपनीयता में कोई मनमाना या गैरकानूनी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।"

2013 में, सुप्रीम कोर्ट ने लीलू @ राजेश बनाम हरियाणा राज्य और अन्य के मामले में कहा था कि 'टू-फिंगर टेस्ट' महिला के निजता और सम्मान के अधिकार का उल्लंघन है।

दिसंबर 2019 में भी सुप्रीम कोर्ट ने यौन अपराध के मामलों में टू-फिंगर टेस्ट के उपयोग बंद करने को कहा था और राज्य सरकारों रिपोर्ट मांगी थी कि टू-फिंगर टेस्ट को खत्म किया गया या नहीं?

मामले का विवरण:

केस टाइटल: गुजरात राज्य बनाम रमेशचंद्र रामभाई पांचाल

केस नं: R/Crl. Appl. No. 122/1996

कोरम: ज‌स्टिस जेबी पारदीवाला और ज‌स्टिस भार्गव डी करिया

वकील: एपीपी चिंतन दवे (राज्य के लिए); एडवोकेट बीपी मुंशी (प्रतिवादियों के लिए)

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