सुप्रीम कोर्ट ने ट्रेडमार्क उल्लंघन मामलों में अंतरिम निषेधाज्ञा देने के मानदंड स्पष्ट किए
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ट्रेडमार्क उल्लंघन से जुड़े मामलों के निपटारे के लिए लागू किए जाने वाले सामान्य मानदंड तय किए हैं। कोर्ट ने कहा कि यद्यपि ट्रेड मार्क्स अधिनियम, 1999 में यह निर्धारित नहीं किया गया है कि किसी चिन्ह से धोखा होने या भ्रम पैदा होने का निर्धारण करने के लिए कोई कठोर या विस्तृत मानदंड हों, फिर भी हर मामला अपने तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर तय किया जाना चाहिए। हालाँकि, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ ने कई परस्पर जुड़े कारकों की सूची दी, जो यह तय करने में महत्वपूर्ण होते हैं कि अंतरिम निषेधाज्ञा (interim injunction) दी जानी चाहिए या नहीं।
कोर्ट ने कहा, “ट्रेडमार्क मामलों में अंतरिम निषेधाज्ञा देने के लिए न्यायालय को कई परस्पर जुड़े कारकों पर विचार करना आवश्यक है: प्रथम दृष्टया मामला (prima facie case), भ्रम की संभावना (likelihood of confusion), पक्षकारों के दावों की तुलनात्मक योग्यता, सुविधा का संतुलन (balance of convenience), अपूरणीय क्षति (irreparable harm) का जोखिम, और सार्वजनिक हित (public interest)। ये सभी विचार सामूहिक रूप से लागू होते हैं और इनमें से किसी एक की अनुपस्थिति भी अंतरिम राहत से इंकार करने के लिए पर्याप्त हो सकती है।”
इस संदर्भ में, कोर्ट ने House of Lords के फैसले American Cyanamid Co. v. Ethicon Ltd. (1975) AC 396 का हवाला दिया, जिसमें स्थापित सिद्धांत अब भी न्यायालयों का मार्गदर्शन करते हैं जब वे ट्रेडमार्क मामलों में अंतरिम निषेधाज्ञा पर निर्णय करते हैं।
कोर्ट के अनुसार, सामान्यतः निम्नलिखित मानदंड लागू किए जाते हैं:
(i) गंभीर प्रश्न / विचारणीय मुद्दा (Serious question to be tried / triable issue):
वादी को यह दिखाना होगा कि उसके पास परीक्षण योग्य वास्तविक और ठोस प्रश्न है। इस स्तर पर सफलता की संभावना साबित करना आवश्यक नहीं है, लेकिन दावा तुच्छ, दुर्भावनापूर्ण या अनुमानित नहीं होना चाहिए।
(ii) भ्रम या धोखे की संभावना (Likelihood of confusion / deception):
हालाँकि इस चरण पर विस्तृत गुण-दोष का विश्लेषण आवश्यक नहीं है, लेकिन न्यायालय प्रथम दृष्टया मामले की मजबूती और उपभोक्ता के भ्रमित होने या धोखे की संभावना का आकलन कर सकते हैं। यदि भ्रम की संभावना कमजोर या अनुमानात्मक है, तो अंतरिम राहत शुरू में ही अस्वीकार की जा सकती है।
(iii) सुविधा का संतुलन (Balance of convenience):
न्यायालय को यह तौलना होगा कि निषेधाज्ञा देने या न देने से किस पक्ष को अधिक असुविधा या हानि होगी। यदि निषेधाज्ञा न देने से वादी की साख (goodwill) को अपूरणीय क्षति हो सकती है या उपभोक्ताओं को गुमराह किया जा सकता है, तो सुविधा का संतुलन निषेधाज्ञा देने के पक्ष में झुक सकता है।
(iv) अपूरणीय क्षति (Irreparable harm):
जहाँ प्रतिवादी द्वारा विवादित चिन्ह का प्रयोग वादी की ब्रांड पहचान के कमजोर होने, उपभोक्ता विश्वास के नुकसान या जनता को धोखे में रखने का कारण बन सकता है – और ये हानियाँ धन-राशि से पूरी तरह नहीं मापी जा सकतीं – वहाँ यह माना जाता है कि अपूरणीय क्षति होगी।
(v) सार्वजनिक हित (Public interest):
जहाँ मामला सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा या व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली वस्तुओं से जुड़ा हो, वहाँ न्यायालय यह भी देख सकते हैं कि उपभोक्ताओं को भ्रम या धोखे से बचाने के लिए निषेधाज्ञा देना सार्वजनिक हित में है या नहीं।
मामले की पृष्ठभूमि:
यह मामला पर्नोड रिकार्ड (Pernod Ricard) द्वारा दायर अपील से संबंधित था, जिसमें उसने इंदौर वाणिज्यिक न्यायालय और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के उन आदेशों को चुनौती दी थी, जिनमें उसके अंतरिम निषेधाज्ञा आवेदन को खारिज कर दिया गया था।
अपीलकर्ता ने दलील दी कि प्रतिवादी ने “ब्लेंडर्स प्राइड (Blenders Pride)” के समान नाम और “इम्पीरियल ब्लू (Imperial Blue)” की तरह शैली का उपयोग करते हुए अपनी व्हिस्की का नाम “लंदन प्राइड (London Pride)” रखा।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपील खारिज करते हुए कहा कि प्रतिवादी की व्हिस्की “लंदन प्राइड” का नाम अपीलकर्ता की ब्रांड “ब्लेंडर्स प्राइड” से कोई भ्रामक समानता (deceptive similarity) नहीं रखता। इस दौरान कोर्ट ने उपरोक्त सिद्धांतों पर विस्तार से चर्चा की कि ट्रेडमार्क मामलों में अंतरिम निषेधाज्ञा कब और किन परिस्थितियों में दी जा सकती है।