सहनशीलता का स्तर घटता जा रहा है, नासमझी में संदेशों को फॉरवर्ड करने से फैलती हैं फर्जी खबरें : जस्टिस एस के कौल

Update: 2020-06-01 09:15 GMT

सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस संजय किशन कौल ने रविवार को मद्रास बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित एक ऑनलाइन व्याख्यान में फर्जी खबरों और इनकी व्युत्पत्ति या डेरिवेटिव के खतरे पर अपने विचार व्यक्त किए।

न्यायमूर्ति कौल ने अपनी प्रारंभिक टिप्पणी में कहा कि

''फ्रीडम ऑफ स्पीच का विचार व विषय आज के समय में मुझे आकर्षित करता है। मुझे लगता है कि जिस विषय पर हम चर्चा कर रहे हैं, उसके संबंध में इस समय की चुनौतियां थोड़ी अलग हैं। खासतौर पर जिस तरीके से तकनीक का विस्तार हुआ है, यह अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया है।''

न्यायमूर्ति कौल ने कहा कि फर्जी समाचारों के प्रसार और गलत सूचना की समस्या के लिए तकनीकी विकास के कारण उपलब्ध हुए इन प्लेटफार्मों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। उन्होंने कहा कि महामारी के इस समय में इन फर्जी खबरों की चुनौती और भी ज्यादा बड़ी हो गई है।

जस्टिस कौल ने कहा कि

''फर्जी खबर कोरोना वायरस से ज्यादा खतरनाक है। इसके असर कई गुना ज्यादा हैं। सहिष्णुता को विकसित करने की आवश्यता पर जोर देते हुए जस्टिस कौल ने कहा कि भारत में सहनशीलता कम होती जा रही है। उन्होंने कहा कि एक वर्ग जो दूसरे वर्ग को असहिष्णु बताता है, असल में वह खुद भी असहिष्णु बन चुका है।''

उन्होंने कहा कि ''पिछले कुछ वर्षों से विभिन्न वर्गों में सहिष्णुता का स्तर नीचे जा रहा है।'शहरी नक्सल' और 'मोदी-भक्त' जैसे शब्दों का इस्तेमाल उन लोगों को वर्गीकृत करने के लिए किया जाता है जो अलग दृष्टिकोण रखते हैं। उनका मानना है कि इस तरह की प्रवृत्तियां विचारों की मुक्त चर्चा के स्थान को खत्म करती जा रही हैं।

न्यायमूर्ति कौल ने कहा,

''हम भले ही सहमत ना हो फिर भी दूसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण को समझना और उसकी सराहना करनी चाहिए।''

उन्होंने यह भी कहा कि,''मिडल पाथ के बारे में कहा जाता है कि इससे एक दुर्घटना हो जाती है। ग्रे शेड्स के कष्ट झेलने पड़ते है। आप केवल काले और गोरों से ही मिल पाते हैं।''

न्यायमूर्ति कौल ने कलात्मक स्वतंत्रता के अधिकार को बरकरार रखने वाले निर्णय भी दिए हैं। यह निर्णय एमएफ हुसैन (जब दिल्ली हाईकोर्ट में जज थे ) के मामलों में और पेरुमल मुरुगन (मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में) के मामलों में दिए थे।

जस्टिस कौल ने पेरुमल मुरुगन मामले में दिए अपने फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि ''अगर आपको कोई किताब पसंद नहीं है, तो उसे फेंक दें।''

इसके बाद न्यायमूर्ति कौल ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने कभी भी फर्जी खबरों के प्रसार की परिकल्पना नहीं की थी, जैसा कि नए जमाने के मीडिया ने किया है। उन्होंने कहा कि व्हाट्सएप संदेशों को बिना किसी सत्यापन या नासमझी के साथ आगे फॉरवर्ड कर दिया जाता है। इनके कारण ऐसे स्थिति बन गई है जहां इस तरह के प्रसार के लिए कोई जिम्मेदारी तय नहीं की जा सकती है।

प्रेस और सोशल मीडिया की जिम्मेदारियों के बीच अंतर पर जोर देते हुए जस्टिस कौल ने कहा कि गलत सूचना के प्रसार के लिए प्रेस को जवाबदेह ठहराया जा सकता है, लेकिन सोशल मीडिया के साथ ऐसा संभव नहीं हो सकता है।

उन्होंने कहा कि

''पत्रकारों के पास एक बैज है। उनके पास संपादकों की एक टीम है और वे अपने प्रकाशनों के लिए जिम्मेदार हैं। प्रेस जब लिखती है तो वे इसके लिए जवाबदेह हैं। समाचार लिखना उनकी रोजी-रोटी से जुड़ा है और वे एक निश्चित समझदारी के साथ इसे लिखते हैं, लेकिन ऐसे भी लोग हैं, जो सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं। शायद उनके विचारों का प्रचार न हो , लेकिन वह उनको बिना किसी जांच या संतुलन के व्यक्त कर देते हैं।''

न्यायमूर्ति कौल ने इन प्लेटफार्मों को संभालने के लिए नियामक विधानों की आवश्यकता को भी इंगित किया। उन्होंने कहा कि ,हालांकि वह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर गलत सूचना से निपटने के लिए सरकारी केंद्रित नियमों के पक्ष में नहीं थे।

इसके अतिरिक्त जस्टिस कौल ने सोशल मीडिया पर होने वाली ट्रोलिंग के मुद्दे और ''त्वरित न्याय'' की बढ़ती मांगों पर भी बात की।

उन्होंने कहा कि

''सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग एक चिंता का विषय है। एक चिंता अश्लीलता पर है - उदाहरण के लिए बोइस लॉकर रूम की घटना - जिस तरह से यह सामने आई, उसके प्रभाव - दुर्भाग्य से एक लड़के ने अपनी जान ले ली। अब लोग ''त्वरित न्याय'' चाहते हैं। यह ''भीड़-मानसिकता'' की ओर लेकर जा रहा है। ''त्वरित न्याय'' की यह मांग एक समस्या है। त्वरित न्याय बहुत अन्याय कर सकता है। जब आप ऐसा करने का प्रयास करते हैं, तो कृपया याद रखें कि ऐसा आपके साथ भी हो सकता है।''

न्यायमूर्ति कौल ने कहा कि हेट स्पीच भी चिंता का एक कारण है। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार द्वारा उठाए गए हर कदम पर बोलने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है।

सरकार की आलोचना और राजद्रोह के बीच के अंतर की पतली रेखा पर एक सवाल का जवाब देते हुए न्यायमूर्ति कौल ने कहा कि सरकार की नीतियों पर बोलना या कुछ कहना राजद्रोह के समान नहीं है।

उन्होंने कहा कि

''पतली रेखा तब शुरू होती है जब संगठित समूह गलत सूचना फैलाने के अभियान में शामिल हो जाते हैं। 'ए' जब 'बी' को असहिष्णु कहता है। जबकि सत्य यह है कि 'ए' खुद भी इतना ही असहिष्णु है।''

इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा कि लोगों को सूचना भेजने या किसी भी चीज का जवाब देने से पहले अपना तर्कसंगत दिमाग लगाते हुए उसकी जांच कर लेनी चाहिए।

न्यायमूर्ति कौल ने कहा कि

''अगर संभव हो तो किसी भी बात का जवाब देने से पहले आप दस तक गिनती गिन सकते हैं। अधिक सोचना चाहिए और जिम्मेदार नागरिकों को इस प्रक्रिया में मदद करनी चाहिए। जब सोचा नहीं जाता है और शिक्षित लोग अपने दिमाग का उपयोग करना बंद कर देते हैं और चरम पर पहुंच जाते हैं, तो समस्याएं पैदा होती हैं।''

न्यायमूर्ति कौल ने कहा कि जब न्यायपालिका के संबंध में आरोप-प्रत्यारोप और ग्रेडिंग करनी शुरू कर दी जाती है तो इससे इस संस्था को नुकसान होगा।

न्यायमूर्ति कौल ने यह भी कहा कि

''एक फैसले के दृष्टिकोण की आलोचना ठीक है, इसमें कोई समस्या नहीं है। लेकिन जब आरोप-प्रत्यारोप और ग्रेडिंग की जाती है, तो मुझे लगता है कि हम इस व्यवस्था या संस्था को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं।'' 

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