उत्तराखंड में वन भूमि कब्जे पर सुप्रीम कोर्ट सख्त — हजारों एकड़ जंगल पर अवैध कब्जे के दौरान राज्य बना रहा मूक दर्शक

Update: 2025-12-22 11:30 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर वन भूमि पर कथित अवैध कब्जे के मामले में राज्य सरकार और उसके अधिकारियों की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि वे इस पूरे प्रकरण में “मूक दर्शक” बने रहे। अदालत ने इस मामले को गंभीर मानते हुए इसकी परिधि बढ़ाकर स्वतः संज्ञान (सुओ मोटो) के रूप में आगे बढ़ाने का निर्णय लिया।

यह मामला चीफ़ जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ के समक्ष आया। सुनवाई के दौरान खंडपीठ ने प्रथम दृष्टया यह टिप्पणी की कि हजारों एकड़ वन भूमि को निजी व्यक्तियों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से हड़पा गया, जबकि राज्य प्रशासन और वन विभाग ने इस पर कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं की।

अदालत ने कहा कि रिकॉर्ड से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि वन भूमि पर कब्जे की यह प्रक्रिया वर्षों तक चलती रही, लेकिन उत्तराखंड सरकार और उसके संबंधित अधिकारी इसे रोकने में पूरी तरह विफल रहे। इस स्थिति को “चौंकाने वाला” बताते हुए पीठ ने कहा कि राज्य मशीनरी की निष्क्रियता ने अवैध कब्जों को बढ़ावा दिया।

मामले की गंभीरता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड के मुख्य सचिव और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को निर्देश दिया कि वे एक जांच समिति (Enquiry Committee) गठित करें, जो इस पूरे मामले से जुड़े सभी तथ्यों की जांच कर विस्तृत रिपोर्ट अदालत के समक्ष प्रस्तुत करे।

अंतरिम राहत के रूप में कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिया कि विवादित भूमि से संबंधित किसी भी निजी व्यक्ति या संस्था को भूमि का हस्तांतरण, गिरवी रखना या किसी भी प्रकार के तृतीय-पक्ष अधिकार (third party rights) बनाने की अनुमति नहीं होगी। इसके साथ ही अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि संबंधित क्षेत्र में किसी भी प्रकार का नया निर्माण कार्य नहीं किया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट ने आगे आदेश दिया कि आवासीय मकानों को छोड़कर शेष सभी खाली भूमि का कब्जा तुरंत वन विभाग और संबंधित जिलाधिकारी द्वारा लिया जाए, ताकि वन भूमि की स्थिति को सुरक्षित रखा जा सके।

यह विवाद लगभग 2866 एकड़ भूमि से संबंधित है, जिसे पहले सरकारी वन भूमि के रूप में अधिसूचित किया गया था। आरोप है कि इस भूमि का एक हिस्सा ऋषिकेश स्थित एक संस्था पशु लोक सेवा समिति को लीज पर दिया गया था। बाद में समिति द्वारा कथित रूप से इस भूमि के अलग-अलग हिस्से अपने सदस्यों को आवंटित कर दिए गए।

रिकॉर्ड के अनुसार, समिति और उसके सदस्यों के बीच विवाद उत्पन्न हुआ, जिसके परिणामस्वरूप एक “संदिग्ध और मिलीभगतपूर्ण” समझौता डिक्री पारित की गई। इसके पश्चात, समिति के परिसमापन (liquidation) के दौरान 23 अक्टूबर 1984 को एक सरेंडर डीड के माध्यम से लगभग 594 एकड़ भूमि वन विभाग को वापस सौंप दी गई। यह आदेश अंतिम रूप से प्रभावी हो गया था।

इसके बावजूद, कुछ निजी व्यक्तियों द्वारा यह दावा किया गया कि उन्होंने वर्ष 2001 के आसपास उक्त भूमि पर कब्जा कर लिया था। इन्हीं दावों और परिस्थितियों को आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि वन भूमि पर बड़े पैमाने पर अवैध कब्जा हुआ है और राज्य के अधिकारियों ने समय रहते कोई ठोस कदम नहीं उठाया।

इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वह इस मामले की निगरानी स्वयं करेगा और वन भूमि की सुरक्षा तथा कानून के शासन को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक निर्देश जारी करता रहेगा।

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