अनुसूचित जनजातियों को बेदखल करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को लगाई फटकार

7 राज्यों व 7 केंद्र शासित प्रदेशों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा मांगा गया ब्योरा नहीं दिया है। इस पर पीठ ने कहा कि उस समय बेदखली हो रही थी तो सब कोर्ट आ गए लेकिन अब किसी को उन लोगों की चिंता नहीं है। केंद्र सरकार भी पहले सोती रही और फिर आखिरी में जाग गई।

Update: 2019-08-07 08:29 GMT

लाखों अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को बेदखल करने के मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को केंद्र और राज्य सरकारों को जमकर फटकार लगाई।

12 सितंबर तक मांगा गया ब्यौरा दाखिल करना होगा

जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ को यह बताया गया कि 7 राज्यों व 7 केंद्र शासित प्रदेशों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा मांगा गया ब्योरा नहीं दिया है। इस पर पीठ ने कहा कि उस समय बेदखली हो रही थी तो सब कोर्ट आ गए लेकिन अब किसी को उन लोगों की चिंता नहीं है। केंद्र सरकार भी पहले सोती रही और फिर आखिरी में जाग गई। पीठ ने ये भी कहा कि मीडिया रिपोर्ट से पता चला है कि 9 राज्यों ने वर्ष 2006 के वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत वन भूमि अधिकारों के दावों की जांच में तय प्रक्रिया का पालन नहीं किया। पीठ ने सभी को चेतावनी दी है कि वो सारा ब्योरा 12 सितंबर तक दाखिल कर दें। उसी दिन पीठ मामले की सुनवाई भी करेगी।

कोर्ट ने लगाई थी अपने आदेश पर रोक

इससे पहले 28 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने अपने 13 फरवरी के उस आदेश पर रोक लगा दी थी जिसमें लाखों अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को बेदखल करने का निर्देश दिया गया था जिनके वर्ष 2006 के वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत वन भूमि अधिकारों के दावे खारिज कर दिए गए थे।

"वन भूमि पर अतिक्रमण करने वालों पर दया नहीं"

न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के नेतृत्व वाली पीठ ने हालांकि यह कहा था कि वन भूमि पर अतिक्रमण करने वाले "शक्तिशाली और अवांछनीय" लोगों के लिए कोई दया नहीं दिखाई जाएगी। पीठ ने स्वीकार किया था कि वनवासी अनुसूचित जनजाति (एफडीएसटी) और अन्य पारंपरिक वनवासियों (ओटीएफडी) के वन अधिकारों के दावों को अंतिम रूप देने से पहले एफआरए के तहत ग्राम सभाओं और राज्यों के अधिकारियों द्वारा उचित प्रक्रिया का पालन करने की आवश्यकता को अस्वीकार कर दिया गया था जिसके चलते 16 राज्यों के 11 लाख से अधिक एसटी और ओटीएफडी को शीर्ष अदालत के 13 फरवरी को निष्कासन के आदेश का खामियाजा भुगतना पड़ा।

4 महीने में राज्यों और केंद्र को दाखिल करना था जवाब

शीर्ष अदालत ने आरोपों का जवाब दाखिल करने के लिए राज्यों को 4 महीने का समय दिया था और यह बताने को कहा था कि दावों को खारिज करने के लिए क्या प्रक्रिया अपनाई गई। पीठ ने राज्यों से वन भूमि में रहने वाले वर्गों का ब्योरा भी मांगा था। वहीं इस दौरान न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने केंद्र और राज्यों को कड़ी फटकार भी लगाई थी। उन्होंने कहा कि जब कोर्ट आदेश पारित कर रहा था तो सब सो रहे थे। किसी ने भी इस पर आवाज नहीं उठाई। इस पर महाराष्ट्र सरकार ने कोर्ट से माफी भी मांगी थी।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता द्वारा यह प्रस्तुत किया गया था कि इससे "बड़ी संख्या में परिवार" प्रभावित हुए हैं। केंद्र ने कहा था कि राज्यों को पहले इस तरह के किसी भी बेदखली से पहले वन अधिकारों के दावों के सत्यापन में अपनाई गई प्रक्रिया पर उचित हलफनामा दाखिल करना चाहिए।

अदालत से अपने आदेश को संशोधित करने की हुई थी मांग

इससे पहले केंद्र और गुजरात राज्य ने सुप्रीम कोर्ट से यह आग्रह किया था कि वह 13 फरवरी के उस आदेश को संशोधित करे जिसमें लाखों अनुसूचित जनजातियों, आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को बेदखल करने का निर्देश दिया गया जिनके वन अधिकार कानून 2006 के तहत वन भूमि अधिकारों के दावों को खारिज कर दिया गया है।

केंद्र ने राज्यों पर दावों को ख़ारिज करने का लगाया आरोप

अपनी अर्जी में केंद्र ने यह कहा कि राज्यों ने लाखों आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के दावे कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना खारिज कर दिए। केंद्र ने 12 सितंबर, 2014 के अपने पत्र का संदर्भ दिया जिसमें वामपंथी उग्रवाद की चपेट में आए राज्यों में आदिवासी आबादी और वनवासियों के साथ हुए अन्याय की बात की गई है। केंद्र ने कहा था कि ऐसे राज्यों में जनजातीय आबादी भी अधिक है। इन जनजातियों और वनवासियों के वन भूमि दावे ज्यादातर राज्यों द्वारा खारिज कर दिए गए हैं। दूरदराज के इलाकों में रहने वाले गरीब और अशिक्षित लोगों को दावे दाखिल करने की उचित प्रक्रिया नहीं पता। ग्राम सभाएं, जो उनके दावों के सत्यापन की पहल करती हैं, उनमें भी इन दावों से निपटने के बारे में जागरूकता कम है। दावों को खारिज करने की सूचना भी उन्हें नहीं दी गई।

"2006 के अधिनियम को प्रभावी ढंग से लागू करने के प्रयास में राज्यों की कमी"

केंद्र ने कहा था कि वर्ष 2014 के पत्र के बावजूद जमीन पर कोई बदलाव नहीं आया है और वर्ष 2015 में पत्रों की श्रृंखला के बाद "दावों की अस्वीकृति की उच्च दर, अस्वीकृति आदेश के गैर-सूचना, दावों के निर्णय में अवास्तविक समयसीमा" जैसे मुद्दों पर प्रकाश डाला गया था। राज्य स्तरीय निगरानी समिति की बैठकों में राजस्व या वन मानचित्र प्रदान करने में संबंधित जिला प्रशासन से सहायता की कमी, अपूर्ण या अपर्याप्त साक्ष्य के बावजूद दावों की अस्वीकृति भी एक मुद्दा है।

केंद्र ने राज्यों को पत्र लिखकर सुझाव दिया था कि उपग्रह इमेजरी जैसी तकनीक का इस्तेमाल दावों पर विचार के लिए किया जा सकता है। केंद्र सरकार ने कहा था कि लगता है कि 2006 के अधिनियम को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए स्थिति को मापने के लिए राज्य सरकारों द्वारा कोई प्रयास नहीं किए गए।

केंद्र ने यह दलील दी थी, "यह अनिश्चित है कि क्या राज्य सरकारों द्वारा प्रस्तुत डेटा सटीक रूप से साबित करता है कि कानून की उचित प्रक्रिया के पालन के बाद ही अस्वीकृति के आदेश पारित किए गए ? प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का अनुपालन भी किया गया१।" केंद्र ने अदालत से अपने आदेश को संशोधित करने और राज्य सरकारों को दावों की अस्वीकृति की प्रक्रिया और विवरण के बारे में विस्तृत हलफनामा दायर करने का निर्देश देने का आग्रह किया था।

"तब तक आदिवासियों के निष्कासन को रोका जा सकता है ... ऐसी जानकारी के बिना आदिवासियों का निष्कासन उनके लिए गंभीर पूर्वाग्रह पैदा करेगा जो पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे हैं," केंद्र ने प्रस्तुत किया था। केंद्र ने यह तर्क दिया था कि दावे को खारिज किए जाने के बाद निष्कासन के लिए 2006 अधिनियम में कोई विशेष प्रावधान नहीं है। 2006 अधिनियम एक लाभकारी कानून है जिसे गरीबों के पक्ष में उदारतापूर्वक लागू किया जाना चाहिए।  

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