सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को राजस्थान हाईकोर्ट के उस फैसले पर रोक लगाई, जिसमें कहा गया कि यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO Act) के तहत प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय मुकदमे के दौरान पीड़िता के 18 साल का हो जाने पर समाप्त हो जाते हैं।
जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की खंडपीठ ने 27 मई, 2025 के हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर छह सप्ताह में जवाब देने योग्य नोटिस जारी किया।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुद्दा यह है कि क्या POCSO Act की धारा 33(2) के तहत प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय मुकदमे के लंबित रहने के दौरान 18 साल की हो चुकी पीड़िता पर लागू होते रहेंगे।
अदालत ने कहा,
"इस याचिका में उठने वाले मुद्दों में से एक यह है कि क्या POCSO Act के तहत पीड़ित बालक, जो कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान बालिग हो गया है, उसको POCSO Act की धारा 33 की उपधारा 2 का लाभ मिलता रहेगा। नोटिस जारी करें, जिसका जवाब छह सप्ताह में दिया जाए। इस बीच हाईकोर्ट द्वारा पारित 27.05.2025 के आदेश का प्रभाव और संचालन स्थगित रहेगा।"
अधिनियम की धारा 33(2) के अनुसार, बालक की चीफ एक्जाम, क्रॉस एक्जामिनेशन या री: एक्जाम के दौरान प्रश्न स्पेशल कोर्ट के माध्यम से ही पूछे जाने चाहिए।
चुनौतीपूर्ण आदेश में राजस्थान हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि ये सुरक्षा उपाय पीड़िता की आयु पर निर्भर हैं और केवल उन्हीं पर लागू होते हैं, जो "बालक" की वैधानिक परिभाषा में फिट बैठते हैं।
हाईकोर्ट ने कहा कि एक बार जब पीड़िता वयस्क हो जाती है तो ये सुरक्षा उपाय अनिवार्य नहीं रह जाते। उसने कहा कि इन प्रावधानों में प्रयुक्त शब्द "बच्चा" है, न कि "पीड़ित", जो विधायिका की इन सुरक्षा उपायों को बच्चों तक सीमित रखने की मंशा को दर्शाता है।
हाईकोर्ट ने मिसेज ईरा थ्रू डॉ. मंजुला क्रिपेनडॉर्फ बनाम राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि "बच्चा" की व्याख्या उसके जैविक अर्थ में की जानी चाहिए, न कि मानसिक या बौद्धिक आयु के आधार पर।
उसने निर्णय दिया कि पीड़ित के वयस्क होने के बाद भी प्रक्रियात्मक सुरक्षा जारी रखना न्यायिक विधान के समान होगा और संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत अभियुक्त के निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को कमजोर करने का जोखिम होगा।
हाईकोर्ट ने आगे कहा कि इन सुरक्षा उपायों को 18 वर्ष से आगे बढ़ाने का कोई भी कार्य भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के तहत कारणों को दर्ज करने और पूर्व योग्यता मूल्यांकन के बाद ही किया जाना चाहिए।
उसने एक अपवाद बनाया और अदालतों को विशिष्ट मामलों में इन सुरक्षाओं को बढ़ाने की अनुमति दी, जहां यह न्याय और गवाह के मनोवैज्ञानिक कल्याण के लिए आवश्यक हो, बशर्ते कि इससे अभियुक्त के प्रति कोई पूर्वाग्रह न हो।
Case Title – XXX v. State of Rajasthan & Anr.