सुप्रीम कोर्ट ने लोन स्वीकृत करने के लिए रिश्वत लेने के आरोप में SBI अधिकारी को हटाने का आदेश बहाल किया
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (20 अगस्त) को दोहराया कि रिट अदालतें केवल प्रक्रियागत अनियमितताओं या प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन के मामलों में ही अनुशासनात्मक जांच में हस्तक्षेप कर सकती हैं।
जस्टिस राजेश बिंदल और जस्टिस मनमोहन की खंडपीठ ने भारतीय स्टेट बैंक (SBI) की अपील स्वीकार करते हुए भ्रष्टाचार के आरोपी बैंक कर्मचारी को हटाने के अनुशासनात्मक प्राधिकारी के फैसले को बहाल कर दिया। न्यायालय ने पटना हाईकोर्ट का आदेश यह कहते हुए रद्द कर दिया कि उसने प्रक्रियागत अनियमितता या प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन के बिना अनुशासनात्मक जांच में गलत हस्तक्षेप किया था।
इसके समर्थन में न्यायालय ने SBI बनाम अजय कुमार श्रीवास्तव (2021) के मामले का हवाला दिया, जहां यह माना गया,
"भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226, अनुच्छेद 32 या अनुच्छेद 136 के तहत संवैधानिक न्यायालयों द्वारा प्रदत्त विभागीय/अपीलीय प्राधिकारियों द्वारा अनुशासनात्मक जांच के मामलों में न्यायिक समीक्षा की शक्ति, विधिक त्रुटियों या प्रक्रियात्मक त्रुटियों को सुधारने की सीमाओं से सीमित है, जिससे स्पष्ट अन्याय या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन होता है। यह अपीलीय प्राधिकारी के रूप में मामले के गुण-दोष के आधार पर निर्णय लेने के समान नहीं है, जिसकी इस न्यायालय द्वारा पहले भी जाँच की जा चुकी है..."
यह वह मामला था, जहां प्रतिवादी-रामाधार साव, जो SBI में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में शामिल हुए और बाद में सहायक बने पर रिश्वत के बदले लोन स्वीकृत कराने में बिचौलिए के रूप में काम करने और बिना अनुमति के अनुपस्थित रहने के आरोप लगे (2008-2010)। एक आंतरिक जांच ने आरोपों की पुष्टि की, जिसमें ऋण प्राप्तकर्ताओं ने उनके खिलाफ गवाही दी।
अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने 2011 में उन्हें बर्खास्त कर दिया, लेकिन अपील पर 2012 में उनकी सजा घटाकर सेवानिवृत्ति लाभों के साथ बर्खास्तगी कर दी गई। साव ने इसे पटना हाईकोर्ट में चुनौती दी, जिसने उन्हें बकाया वेतन के साथ बहाल करने का आदेश दिया। बैंक की अंतर-न्यायालयीय अपील खारिज होने के बाद बैंक ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
जस्टिस बिंदल द्वारा लिखित निर्णय में विवादित निर्णय रद्द करते हुए यह टिप्पणी की गई कि हाईकोर्ट ने अनुशासनात्मक निष्कर्षों में हस्तक्षेप करके गलती की, जबकि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के उल्लंघन का कोई मामला नहीं बनता था।
अदालत ने कहा,
"प्रतिवादी का यह मामला नहीं है कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ। इसका अर्थ यह है कि जांच के दौरान उचित प्रक्रिया का पालन किया गया। जांच अधिकारी ने पांच ऋणदाताओं द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य की सराहना की, जिन्होंने स्पष्ट रूप से यह प्रमाणित किया कि उन्होंने अपने दस्तावेज़ों में कमी होने के बावजूद प्रतिवादियों को अपने ऋणों की स्वीकृति के समन्वय हेतु धन का भुगतान किया था।"
अदालत ने यह पाया कि प्रतिवादी-कर्मचारी भ्रष्ट गतिविधियों में संलिप्त था।
इसके अलावा, अदालत ने कहा कि यदि दंड लगाने का आदेश जांच अधिकारी द्वारा दर्ज किए गए निष्कर्षों को स्वीकार करने के बाद पारित किया गया, तो दंड लगाने के आदेश में अनुशासनात्मक प्राधिकारी द्वारा विस्तृत कारण प्रस्तुत करने में विफलता अनुशासनात्मक कार्यवाही के लिए घातक नहीं हो सकती। [देखें बोलोराम बोरदोलोई बनाम लखीमी गाओलिया बैंक एवं अन्य (2021)]
अदालत ने आगे कहा,
"उपर्युक्त कारणों से हमारी राय में हाईकोर्ट की एकल पीठ और खंडपीठ द्वारा पारित आक्षेपित आदेश कानूनी रूप से कायम नहीं रह सकते। ये आदेश निरस्त किए जाने योग्य हैं। तदनुसार, आदेश दिया जाता है। अपीलीय प्राधिकारी द्वारा दिनांक 07.12.2012 को पारित आदेश, जिसमें रिटायरमेंट लाभों के साथ 'सेवा से हटाने' की सजा दी गई, बहाल किया जाता है।"
Cause Title: STATE BANK OF INDIA & OTHERS VERSUS RAMADHAR SAO