बहुविवाह और निकाह- हलाला के खिलाफ याचिकाओं पर जल्द सुनवाई से इनकार, CJI ने कहा छुट्टियों के बाद देखेंगे

Update: 2019-12-02 06:34 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने बहुविवाह और निकाह-हलाला पर प्रतिबंध लगाने की पांच याचिकाओं पर जल्द सुनवाई से इनकार कर दिया है। सोमवार को मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष बीजेपी नेता और याचिकाकर्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने जल्द सुनवाई के लिए अनुरोध किया।

पीठ ने पूछा कि क्या ये धार्मिक प्रथा का मामला है तो याचिकाकर्ता ने कहा कि ये लैंगिक आधार पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का मामला है। इस पर मुख्य न्यायाधीश बोबडे ने कहा कि ये प्रथा हजारों साल से चलती आ रही है। पीठ ने कहा कि वो सर्दियों की छुट्टियों के बाद देखेंगे।

इससे पहले मई 2018 में एक और पीड़ित महिला की याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी किया गया और उसे भी संविधान पीठ को भेज दिया गया। ये शबनम द्वारा दायर की गई नई याचिका को भी उसी संविधान पीठ में भेज दिया।

" ये कहना कि परंपरा जो निश्चित रूप से पर्सनल लॉ के क्षेत्र में आती है संविधान के तहत उसकी न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती, ये बचाव नहीं हो सकता, " शबनम ने तर्क दिया है।

"याचिकाकर्ता धर्म द्वारा एक मुस्लिम है, एक गृहिणी, जो वर्तमान में बुलंदशहर, यू.पी. में अपने ससुराल में रह रही है, क्योंकि उसका पति किसी और महिला के साथ शादी कर चुका है तो उसे बाहर निकाल दिया गया है।"

याचिका में कहा गया है कि बुलंदशहर के जौलीगढ़ के स्थानीय निवासियों ने याचिकाकर्ता के ससुराल वालों पर दबाव डाला और उसके बाद याचिकाकर्ता के ससुराल वाले घर में रहने की अनुमति देने के लिए तैयार हो गए।

सुप्रीम कोर्ट पहले से ही चार याचिकाओं पर सुनवाई के लिए तैयार हो चुका है- दो पीड़ितों नफीसा बेगम और समीना बेगम द्वारा दायर और दो वकील अश्विनी उपाध्याय और मोहसिन काथिरी द्वारा जिन्होंने बहुविवाह और निकाह-हलाला की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है।

जमीयत-उलमा-ए-हिंद ने बहुविवाह और निकाह- हलाला प्रथाओं का समर्थन किया है। याचिकाओं में कहा गया है कि ये मुस्लिम पत्नियों को बेहद असुरक्षित, कमजोर और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।

उन्होंने प्रार्थना की है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम की धारा 2 को असंवैधानिक और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 15 (धर्म के आधार पर भेदभाव) और संविधान के 21 (जीने के अधिकार ) के उल्लंघन के रूप में घोषित किया जाना चाहिए।

जमीयत-उलमा-ए-हिंद का तर्क है कि संविधान पर्सनल लॉ पर आधारित नहीं है और इसलिए अदालत प्रथाओं की संवैधानिक वैधता के सवाल की जांच नहीं कर सकती। उनका तर्क है कि सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी पहले मौकों पर निजी कानून द्वारा स्वीकृत प्रथाओं में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। यही तर्क उन्होंने ट्रिपल तलाक को चुनौती मामले में भी दिया था जिसे सुप्रीम कोर्ट पहले ही रद्द कर चुका है। 

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