AMU कुलपति के रूप में प्रोफ़ेसर नईमा खातून की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा: 'पति का अपनी पत्नी के नाम के चयन वाली बैठक में शामिल होना संदेह पैदा करता है'

Update: 2025-08-18 08:09 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) की पहली महिला कुलपति के रूप में प्रोफ़ेसर नईमा खातून की नियुक्ति पर मौखिक रूप से सवाल उठाया। कोर्ट ने कहा कि उनके पति प्रोफ़ेसर मोहम्मद गुलरेज़ उस कार्यकारी परिषद की बैठक में शामिल थे जिसने पैनल के लिए उनका नाम चुना था। बता दें, प्रोफे़सर मोहम्मद गुलरेज़ उस समय यूनिवर्सिटी केकार्यवाहक कुलपति थे।

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बीआर गवई, जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस एनवी अंजारिया की खंडपीठ प्रोफ़ेसर मुज़फ़्फ़र उरुज रब्बानी और प्रोफ़ेसर फ़ैज़ान मुस्तफ़ा द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के ख़िलाफ़ दायर विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें प्रोफ़ेसर खातून की नियुक्ति को बरकरार रखा गया था।

याचिकाकर्ताओं की ओर से सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल द्वारा उठाई गई चुनौती का मुख्य आधार यह था कि प्रोफ़ेसर खातून की नियुक्ति को गलत ठहराया गया, क्योंकि उनके पति ने एक्टिंग काउंसिल और यूनिवर्सिटी कोर्ट की बैठक की अध्यक्षता की थी। इसमें उनका नाम कुलाध्यक्ष को भेजे जाने वाले पैनल में शामिल था।

सिब्बल ने कहा,

"अगर कुलपतियों की नियुक्ति इसी तरह होती है तो मैं यह सोचकर कांप उठता हूं कि भविष्य में क्या होगा।"

बेंच ने मौखिक रूप से कहा कि आदर्श रूप से पूर्व कुलपति को उस बैठक में शामिल नहीं होना चाहिए था, जब उनकी पत्नी के नाम पर विचार किया जा रहा था।

चीफ जस्टिस गवई ने बताया कि हाईकोर्ट ने स्वयं यह टिप्पणी की थी कि कुलपति के लिए बेहतर होता कि वे कार्यवाही से बाहर निकल जाते और अगले सीनियर व्यक्ति को अध्यक्ष बना देते।

चीफ जस्टिस गवई ने कहा,

"आम तौर पर, जब हम कॉलेजियम में बैठते हैं और बार से किसी जूनियर के नाम पर विचार चल रहा होता है, तब भी हम सुनवाई से खुद को अलग कर लेते हैं... निश्चित रूप से, जब पत्नी का नाम विचाराधीन हो तो पति का इसमें शामिल होना संदेह पैदा करता है। कहा जाता है कि काम न केवल सही तरीके से होना चाहिए, बल्कि सही तरीके से होते हुए दिखना भी चाहिए।"

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सहमति जताई कि कुलपति का खुद को सुनवाई से अलग कर लेना उचित होता। हालांकि, उन्होंने टाटा सेलुलर मामले में दिए गए "आवश्यकता के सिद्धांत" का हवाला दिया और कहा कि जब भागीदारी कानूनी आवश्यकता को पूरा करने के लिए हो तो प्रक्रिया को दोषपूर्ण नहीं कहा जा सकता।

इस मोड़ पर जस्टिस चंद्रन ने कहा कि वह इस मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर रहे हैं, क्योंकि पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के रूप में वह चाणक्य नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के पदेन कुलाधिपति थे, जिन्होंने प्रोफेसर फैजान मुस्तफा (दूसरे याचिकाकर्ता) को सीएनएलयू का कुलपति नियुक्त किया था।

हालांकि, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि जस्टिस चंद्रन को सुनवाई से अलग होने की कोई ज़रूरत नहीं है।

सॉलिसिटर जनरल ने कहा,

"हमें आप पर पूरा भरोसा है। अगर आपने प्रोफ़ेसर फ़ैज़ान मुस्तफ़ा को चुना भी था तो भी आप ही फ़ैसला ले सकते हैं।"

जस्टिस चंद्रन ने कहा,

"यहां उठाया गया सवाल पक्षपात का है। चूंकि विषय पक्षपात का है, इसलिए मेरा इससे अलग होना उचित है।"

यह कहते हुए कि अंततः फ़ैसला जस्टिस चंद्रन को ही लेना है, चीफ जस्टिस गवई ने मामले को उस बेंच के समक्ष रखने का आदेश दिया, जिसका हिस्सा जस्टिस चंद्रन नहीं थे।

एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने सुनवाई के दौरान दलील दी कि प्रोफ़ेसर नईमा खातून "उत्कृष्ट शैक्षणिक रिकॉर्ड" वाली महिला हैं और उन्होंने AMU की पहली महिला कुलपति बनकर इतिहास रच दिया।

Case : MUZAFFAR URUJ RABBANI Vs UNION OF INDIA | SLP(C) No. 19209/2025

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