पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी करने वाला CISF कांस्टेबल बहाल, सुप्रीम कोर्ट ने कहा- अनुशासनिक कार्रवाई में हाईकोर्ट द्वारा दखल अनुचित

Update: 2025-12-26 12:49 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि पहली शादी के subsistence के दौरान दूसरी शादी करना गंभीर दुराचार है और ऐसे मामले में अनुशासनिक प्राधिकारी द्वारा दी गई सजा में हाईकोर्ट को अपीलीय अधिकार की तरह हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। अदालत ने केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) के एक कांस्टेबल की बर्खास्तगी को बरकरार रखते हुए हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया।

यह फैसला जस्टिस संजय करोल और जस्टिस विपुल एम. पंचोली की खंडपीठ ने सुनाया। खंडपीठ ने यूनियन ऑफ इंडिया की अपील स्वीकार करते हुए अनुशासनिक, अपीलीय और पुनरीक्षण प्राधिकरणों द्वारा पारित बर्खास्तगी के आदेशों को बहाल कर दिया।

पृष्ठभूमि

उत्तरदायी कर्मचारी वर्ष 2006 में CISF में कांस्टेबल के रूप में नियुक्त हुआ था। मार्च 2016 में उसकी पत्नी ने शिकायत दर्ज कराई कि वह पहली शादी बने रहने के दौरान दूसरी शादी कर चुका है और उसने पत्नी तथा नाबालिग पुत्री की उपेक्षा की है। शिकायत के बाद उसके विरुद्ध Rule 18(b), CISF Rules, 2001 के तहत आरोपपत्र जारी हुआ, जिसमें दूसरी शादी को सेवा-नियमों का उल्लंघन और गंभीर दुराचार माना गया।

विभागीय जांच में आरोप सिद्ध पाए गए और 1 जुलाई 2017 को वरिष्ठ कमांडेंट ने उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया। यह आदेश अपीलीय तथा पुनरीक्षण प्राधिकारियों ने भी बरकरार रखा।

कर्मचारी ने बर्खास्तगी को हाईकोर्ट में चुनौती दी। एकल पीठ तथा तत्पश्चात डिवीजन बेंच ने यह कहते हुए सजा को कठोर माना कि बर्खास्तगी अत्यधिक दंडात्मक है और इससे परिवार को आर्थिक कठिनाई होगी; इसलिए मामले को हल्की सजा पर पुनर्विचार हेतु प्राधिकारियों को वापस भेज दिया गया। इसके विरुद्ध यूनियन ऑफ इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

अपील स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि अनुशासनिक मामलों में हाईकोर्ट का अधिकार-क्षेत्र सीमित है और वह अनुच्छेद 226 के तहत अपील-न्यायालय की तरह सजा में दखल नहीं दे सकता। न्यायिक समीक्षा केवल निर्णय-प्रक्रिया तक सीमित है—न कि निर्णय के गुण-दोष तक।

अदालत ने कहा कि सजा में हस्तक्षेप तभी संभव है, जब

प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन हो,

नियमों का पालन न किया गया हो,

साक्ष्य का अभाव हो, या

सजा इतनी विसंगत/चौंकाने वाली हो कि न्यायिक विवेक को झकझोर दे।

पीठ ने B.C. Chaturvedi v. Union of India (1995), Union of India v. P. Gunasekaran (2015), Union of India v. K.G. Soni (2006) जैसे निर्णयों पर भरोसा किया।

नियम 18 — अनुशासन और सेवा-शर्तें

अदालत ने कहा कि Rule 18, CISF Rules bigamy को गंभीर सेवा-उल्लंघन मानता है, और ऐसे नियम नैतिक फटकार नहीं, बल्कि अनुशासन व संस्थागत दक्षता बनाए रखने से जुड़े सेवा-शर्तें हैं। निजी जीवन में ऐसा आचरण, जो घरेलू विवाद, आर्थिक अस्थिरता या विभाजित दायित्व उत्पन्न करे, बल की संचालन-क्षमता और मनोवैज्ञानिक स्थिरता पर प्रतिकूल असर डाल सकता है।

अदालत ने स्पष्ट किया कि जहाँ व्यक्तिगत कानून बहुविवाह की अनुमति देता हो या पहली शादी शून्य/शून्यकरणीय हो, वहाँ स्थिति भिन्न हो सकती है; परंतु वर्तमान मामले में नियम स्पष्ट और निर्विवाद है और कार्यवाही में किसी प्रक्रियात्मक त्रुटि का आरोप भी नहीं है।

पीठ ने कहा कि “dura lex sed lex — कानून कठोर हो सकता है, परंतु वही कानून है”; केवल कठिनाई या अप्रिय परिणाम इस नियम के अनुपालन को कम नहीं कर सकते।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने सजा को “अनुपातहीन” बताते हुए अपने विचार को प्राधिकारियों के स्थान पर प्रतिस्थापित किया, जो कानूनन उचित नहीं था। अतः हाईकोर्ट के निर्णयों को रद्द कर CISF द्वारा पारित बर्खास्तगी का आदेश बहाल कर दिया गया।

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