आईपीसी की धारा 120बी – दिमागी साठगांठ दिखाने वाले साक्ष्य के अभाव में आपराधिक साजिश के लिए किसी व्यक्ति को दोषी ठहराना सुरक्षित नहीं: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने देखा है कि किसी अवैध कार्य को करने के उद्देश्य से साजिशकर्ताओं के बीच साजिश रचने के लिए दिमागी साठगांठ दिखाने के सबूत के अभाव में किसी व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 120-बी के तहत अपराधों के लिए दोषी ठहराना सुरक्षित नहीं है।
न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की पीठ पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा पारित 17 मार्च, 2020 के फैसले ("आक्षेपित आदेश") के खिलाफ एक आपराधिक अपील पर विचार कर रही थी। आक्षेपित आदेश के माध्यम से उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता/आरोपी द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया था और अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, रेवाड़ी द्वारा पारित दोषसिद्धि और सजा के आदेश को बरकरार रखा था।
'परवीन उर्फ सोनू बनाम हरियाणा सरकार' मामले में अपील की अनुमति देते हुए पीठ ने कहा कि,
"यह अच्छी तरह से तय है कि साजिश के आरोप को साबित करने के लिए, धारा 120-बी के दायरे में, यह स्थापित करना आवश्यक है कि पार्टियों के बीच एक गैरकानूनी कार्य करने के लिए समझौता था। साथ ही, गौरतलब है कि प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा साजिश को स्थापित करना बिल्कुल भी मुश्किल है, लेकिन साथ ही, किसी अवैध कार्य को करने के उद्देश्य से साजिशकर्ताओं के बीच साजिश और साठगांठ दिखाने के लिए किसी भी सबूत के अभाव में, आईपीसी की धारा 120-बी के तहत अपराधों के लिए दोषी ठहराना सुरक्षित नहीं है। इधर-उधर के कुछ-कुछ तथ्य, जिस पर अभियोजन भरोसा करता है, को आरोपी को आपराधिक साजिश के अपराध से जोड़ने के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता है। यहां तक कि सह-आरोपी के कथित इकबालिया बयान भी, अन्य स्वीकार्य पुष्टिकारक सबूतों के अभाव में, आरोपी को दोषी ठहराने के लिए सुरक्षित नहीं हैं।"
तथ्यात्मक पृष्ठभूमि
14 मार्च, 2009 को जब पुलिस चार आरोपियों को सेंट्रल जेल, जयपुर से सीजेएम कोर्ट, भिवानी के समक्ष पेश करने के लिए ले जा रही थी, उन पर चार युवा लड़कों ने हमला किया, जिन्होंने आरोपियों को छुड़ाने की कोशिश की थी। हिरासत में लिए गए आरोपियों ने भी भागने की कोशिश की और सरकारी कार्बाइन छीन ली। एक आरोपी ने हेड कांस्टेबल अर्जुन सिंह पर गोली चला दी, जिसकी गोली लगने से मौत हो गई। विवेचना पूर्ण होने पर सभी अभियुक्तों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 224, 225, 332, 353, 392, 307, 302, 120-बी तथा शस्त्र अधिनियम की धारा 25/54/59 के तहत दंडनीय अपराध का मुकदमा चलाया गया।
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 14 जनवरी 2010 को सभी आरोपियों को भारतीय दंड संहिता की धारा 224, 225, 332, 353, 302 सहपठित धारा 120-बी के तहत दंडनीय अपराधों के लिए दोषी ठहराया।
आरोपी अमरजीत सिंह और सुरेंद्र सिंह उर्फ धट्टू को शस्त्र अधिनियम की धारा 25 के तहत दंडनीय अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था और 18 जनवरी, 2010 के आदेश द्वारा उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 302 आर/डब्ल्यू धारा 120-बी के तहत अन्य अपराधों के लिए दोषसिद्धि के अलावा आजीवन कारावास की सजा के साथ-साथ पांच हजार रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई थी।
इससे व्यथित आरोपियों ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। दोषसिद्धि और सजा की पुष्टि करते हुए, उच्च न्यायालय ने सभी अपीलों को खारिज कर दिया और इस प्रकार अभियुक्तों ने शीर्ष न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
वकीलों की दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से पेश हुए, अधिवक्ता ऋषि मल्होत्रा ने दलील दी कि हालांकि कथित अपराध में अपीलकर्ता की भागीदारी को स्थापित करने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं था, ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ उच्च न्यायालय ने अभियोजन की कहानी को किसी भी सहायक सबूत के अभाव में स्वीकार कर लिया और उसे दोषी ठहराया।
यह दलील दी गयी थी कि सह-अभियुक्तों के कथित इकबालिया बयानों को छोड़कर, अपीलकर्ता को अपराध से जोड़ने के लिए कोई अन्य स्वीकार्य सबूत नहीं था। उन्होंने आगे तर्क दिया कि कोई टीआईपी (परीक्षण पहचान परेड) नहीं किया गया था और अभियोजन पक्ष के अनुसार पकड़ा गया आरोपी केवल विनोद था और अन्य सभी तीन व्यक्ति भाग गए थे।
वकील ने आगे तर्क दिया कि हालांकि अपीलकर्ता/अभियुक्त को अपराध से जोड़ने का कोई सबूत नहीं था, लेकिन ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता को अपराध को साबित करने के लिए किसी भी स्वीकार्य सबूत के अभाव में दोषी ठहराया था, इतना ही नहीं, हाईकोर्ट ने सिवाय सभी गवाहों के बयान दर्ज करने के, अपीलकर्ता की ओर से किये गये किसी भी आग्रह पर विचार नहीं किया और अपील को खारिज कर दिया।
हरियाणा राज्य की अतिरिक्त एडवोकेट जनरल बांसुरी स्वराज ने दलील दी कि रिकॉर्ड पर पर्याप्त सामग्री, सबूत थे जो स्पष्ट रूप से उचित संदेह से परे आरोपी के अपराध को स्थापित करते थे।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी द्वारा लिखे गए फैसले में पीठ ने 'इंद्रा दलाल बनाम हरियाणा सरकार (2015) 11 एससीसी 31' मामले में शीर्ष अदालत के फैसले पर भरोसा जताया, जिसमें कोर्ट ने केवल इकबालिया बयान और अपराध में इस्तेमाल किए गए वाहन की बरामदगी के आधार पर दोषसिद्धि पर विचार किया था।
'उप्पा उर्फ मंजूनाथ बनाम कर्नाटक सरकार (2013) 14 एससीसी 729' मामले का भी संदर्भ दिया गया था, जिसमें यह देखा गया था कि जब एक आरोपी को दोषी ठहराया जाता है और कारावास की सजा सुनाई जाती है और कारावास की सजा सुनाई जाती है, तो हाईकोर्ट द्वारा सजा की पुष्टि भौतिक साक्ष्य के विश्लेषण पर ठोस कारण देकर ही किया जाना न्यायोचित होता है।
इस प्रकार बेंच ने कहा कि अभियोजन अपने मामले को साबित करने में विफल रहा है, कि यहां अपीलकर्ता ने अन्य आरोपियों के साथ उन अपराधों के लिए साजिश रची थी, जिनके लिए उस पर आरोप लगाया गया था।
अपील की अनुमति देते हुए कोर्ट ने कहा,
"सह-आरोपी के कथित इकबालिया बयानों को छोड़कर और किसी अन्य पुष्ट सबूत के अभाव में, अपीलकर्ता पर लगाए गए दोषसिद्धि और सजा को बनाए रखना सुरक्षित नहीं है। ट्रायल कोर्ट द्वारा अपीलकर्ता को दोषी ठहराये जाने के लिए मुख्य रूप ये तथ्य रिकॉर्ड पर लाये गये गए हैं कि वह विचाराधीन अपराध के लिए साजिशकर्ताओं में से एक था, जो गलत और अवैध है। हाईकोर्ट ने उचित परिप्रेक्ष्य में रिकॉर्ड पर रखे गये सबूतों पर विचार नहीं किया है और अपीलकर्ता पर लगाए गए दोषसिद्धि और सजा की गलत पुष्टि की है।''
केस टाइटल: परवीन @सोनू बनाम हरियाणा सरकार| आपराधिक अपील संख्या 1571/2021
कोरम: जस्टिस आर सुभाष रेड्डी और जस्टिस हृषिकेश रॉय
साइटेशन : एलएल 2021 एससी 715
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