कमजोर वर्गों के छात्रों में भेदभाव और डिजिटल विभाजन को खत्म करने के लिए यूनिफॉर्म एजुकेशन पॉलिसी बनाने की मांग संंबंंधित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी किया

Update: 2020-08-27 15:54 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका पर नोटिस जारी किया है, जिसमें मांग की गई है कि केंद्र को निर्देश दिया जाए कि COVID19 महामारी के दौरान अपनाई जाने वाली भेदभावपूर्ण प्रथाओं को रोकने और प्रारंभिक शिक्षा में कमजोर वर्ग के बच्चों की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए वह हर राज्य के लिए एक समान शिक्षा नीति या यूनिफाॅर्म एजुकेशन पाॅलिसी बनाए।

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले को सुनने के बाद नोटिस जारी किया है। मामले में याचिकाकर्ता की तरफ से वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने पेश होते हुए दलीलें पेश की थी।

गुड गवर्नन्स चैंबर्स की ओर से एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड दीपक प्रकाश ने यह याचिका दायर की है। याचिका में कहा गया है कि प्रतिवादी 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा से संबंधित मुद्दों को प्रभावी ढंग से संबोधित करने में विफल हो रहे है। जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21ए के साथ-साथ राईट टू चिल्ड्रन टू फ्री एंड कम्पल्सरी एजुकेशन एक्ट 2009 के तहत इन बच्चों को यह शिक्षा दी जानी जरूरी है।

यह भी प्रस्तुत किया गया है कि

''COVID19 के समय में प्राथमिक शिक्षा को विनियमित करने के लिए प्रतिवादियो द्वारा उठाए गए कदम न केवल अपर्याप्त हैं, बल्कि यह असमानता भी पैदा कर रहे हैं और समाज के कमजोर वर्ग के बच्चों को सदा के लिए नुकसानदेह स्थिति में डाल रहे हैं।''

याचिका में उन छात्रों के प्रति भी प्रतिवादियों द्वारा अपनाए गए उदासीन रुख को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है जो ''रिवर्स माइग्रेशन से प्रभावित हैं और माता-पिता के सामने आई आर्थिक कठिनाइयों के कारण वह स्कूल छोड़ने की कगार पर हैं या मजबूर हो रहे हैं।''

उपरोक्त संदर्भ में, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया है कि डिजिटल मोड (यानी ऑनलाइन कक्षाएं) के माध्यम से शिक्षा प्रदान करके प्रतिवादी देश के अंदर ही बने डिजिटल विभाजन को स्वीकार करने या देखने में विफल रहे हैं।

''हालांकि, भारत में डिजिटलाइजेशन की कमी और डिजिटल उपकरणों व गैजेट्स की अनुपलब्धता के कारण अधिकांश छात्रों को अपेक्षित शिक्षा प्राप्त करने में गंभीर चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। यह परेशानी इसलिए और ज्यादा है क्योंकि अधिकांश बच्चे आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर समाज के वर्गों से संबंध रखते हैं।''

इसके अलावा, यह दलील भी दी गई है कि प्रतिवादियों ने प्रवासी मजदूरों और विकलांग बच्चों की समस्याओं को कम करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। क्योंकि प्रवासी मजदूरों के बच्चों की साधनों तक कोई पहुंच नहीं है और विकलांग बच्चे अपनी विशेष आवश्यकताओं के कारण ऑनलाइन शिक्षा सुविधाओं का उपयोग करने में असमर्थ हैं।

यह दलील भी दी गई है कि प्रतिवादियों द्वारा जारी किए गए दिशानिर्देश ''पूरे देश में सभी बच्चों के लिए ऑनलाइन शिक्षा के कार्यान्वयन में आ रही बाधाओं से निपटने के लिए अपर्याप्त साबित हुई हैं।''

डिजिटल क्षेत्र में अधिकांश मुद्दों को हल करने के उद्देश्य से PRAGYATA के नाम से बनाए गए दिशानिर्देश भी ''ऑनलाइन शिक्षा तक पहुंच न होने वाले बच्चों, प्रवासी बच्चों और विकलांग बच्चों की स्थितियों से निपटने के लिए प्रभावी उपाय सुझाने में बुरी तरह विफल रही हैं।''

इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है कि दिशा-निर्देश स्कूल खोलने और स्कूलों के संचालन के बारे में समान नीति बनाने के लिए राज्यों के साथ समन्वय करने की आवश्यकता को स्वीकार करने में भी विफल रही हैं।

इसलिए याचिका में प्रतिवादियों को कई सारे दिशा-निर्देश जारी करने की मांग की गई है, जिनमें मोड शिक्षा के बारे में सरकारी और निजी स्कूलों के लिए राज्य स्तर पर समान नीतियों का निर्माण करना, उन लोगों के लिए वैकल्पिक रणनीति तैयार करना जो ऑनलाइन शिक्षा का उपयोग करने में असमर्थ हैं, प्रवासी मजदूरों के बच्चों को आवश्यक दस्तावेजों के बिना ही आस- पास के स्कूलों में प्रवेश लेने की अनुमति देने के लिए नीतियों का निर्माण करना आदि शामिल हैं।

याचिका की काॅपी डाउनलोड करें।



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