सेक्‍शन 397 आईपीसी: सुप्रीम कोर्ट ने कहा, हथियार के उपयोग के लिए यह आवश्यक नहीं कि अपराधी ने वास्तव में उसे फायर किया या घोंपा हो, उसे दिखाना या लहराना ही पर्याप्त

Update: 2022-01-07 10:59 GMT

सुप्रीम कोर्ट

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एनवी रमाना और जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हिमा कोहली की तीन-जजों की बेंच ने हाल में दिए गए फैसले के जर‌िए भारतीय दंड संहिता के तहत डकैती के अपराध संबंधित कानून की दो महत्वपूर्ण स्थितियों को स्पष्ट किया। अदालत के समक्ष प्रश्न था कि अगर आग्नेयास्त्र का इस्तेमाल नहीं किया गया है तो क्या आईपीसी की धारा 397 के तहत आरोप सही रहेगा।

जस्टिस बोपन्ना द्वारा लिख‌ित आदेश में कहा गया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 397 के अवयवों को पूरा करने के लिए, पहले, अपराधी के लिए यह आवश्यक नहीं है ‌कि वह सचमुच हथियार का इस्तेमाल, उस उद्देश्य लिए करे, जिसके लिए यह कार्य करता है। पीड़ित के मन में भय पैदा करने के लिए उसे दिखाना भी पर्याप्त होगा।

कोर्ट ने कहा,

"यह स्पष्ट है कि धारा 397 आईपीसी के तहत अपराध का गठन करने के लिए हथियार के उपयोग के लिए यह आवश्यकता नहीं है कि 'अपराधी' को वास्तव में आग्नेयास्त्र से फायर करना चाहिए या वास्तव में चाकू या खंजर होने पर चाकू मारना चाहिए, लेकिन केवल उसे दिखाना, लहराना, उसे खुलेआम पकड़ना पीड़ित के मन में डर या आशंका पैदा करने और डराने-धमकाने के लिए काफी है।"

दूसरे, धारा 397 स्वचालित रूप से सभी सह-अभियुक्तों पर तब तक लागू नहीं होती जब तक कि IPC की धारा 34 के तहत विशेष रूप से कोई आरोप नहीं लगाया जाता है। केवल वह व्यक्ति जो वास्तव में एक घातक हथियार का 'उपयोग' करता है, उसी को उपयोग के लिए फ्रेम किया जा सकता है।

कोर्ट ने कहा-

"यदि सभी अभियुक्तों के विरुद्ध अपराध करने का आरोप लगाया जाता है और 'अपराधियों' में से केवल एक ने बन्दूक या घातक हथियार का इस्तेमाल किया था, केवल वही 'अपराधी' जिसने बन्दूक या घातक हथियार का इस्तेमाल किया है, आईपीसी की धारा 397 के तहत आरोपित होने के लिए उत्तरदायी होगा।"

पृष्ठभूमि

निचली अदालत ने अपीलकर्ता को दो सह-आरोपियों के साथ भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 392 और 397 के साथ सहपठित मध्य प्रदेश डकैती और व्यपहरण प्रभावित क्षेत्र अधिनियम 1981 की धारा 11/13 के तहत दोषी ठहराया था। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने आरोपी के खिलाफ सबूत पेश करने के तरीके की फिर से सराहना की और सभी आरोपियों की एक आम अपील पर सुनवाई की।

मुख्य आरोपी राम रतन ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के आक्षेपित निर्णय एवं आदेश के विरुद्ध अपील की।

दलीलें

अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि हथियार ले जाना साबित होने पर भी, इस्तेमाल नहीं किया गया था और इस तरह आईपीसी की धारा 397 के तहत आरोप नहीं बनता है। इसके अलावा, भले ही अपीलकर्ता के खिलाफ लूट की घटना साबित हो गई हो, लेकिन ऐसा कोई सबूत नहीं है, जो यह बताता हो कि उसने एक घातक हथियार का इस्तेमाल किया था।

वकील ने तर्क दिया कि यदि निम्नलिखित संतुष्ट नहीं है तो आरोप आईपीसी की धारा 392 के तहत आएगा और अपीलकर्ता, जिसे लगभग चार साल की कैद हो चुकी है, उस प्रावधान के तहत पहले ही पर्याप्त सजा भुगत चुका है।

राज्य के वकील ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता के खिलाफ सबूत की पुष्टि की गई थी क्योंकि चोरी की मोटरसाइकिल और मोबाइल फोन बरामद किया गया था और डकैती के लिए इस्तेमाल की गई बंदूक को भी जब्त कर लिया गया था और विशेषज्ञ ने जांच की थी कि यह काम करने की स्थिति में था। चूंकि आग्नेयास्त्र के वास्तविक उपयोग की आवश्यकता नहीं है, इसलिए इसको दिखाना आईपीसी की धारा 397 को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त है।

अदालत ने इस मामले का फैसला करते हुए श्री फूल कुमार बनाम दिल्ली प्रशासन एन (1975) 1 एससीसी 797 के मामले को ध्यान में रखा, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कई हाईकोर्ट के समक्ष धारा 397 में मौजूद "उपयोग" शब्द के अर्थ के लिए पैदा हुई कठिनाई के बारे में बात की थी।

कोर्ट ने दिलावर सिंह बनाम दिल्ली राज्य (2007) 12 एससीसी 641 के मामले में 2007 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी उल्‍लेख किया।

उपरोक्त मामलों के आलोक में कोर्ट ने कहा,

"यह स्पष्ट है कि आईपीसी की धारा 397 के तहत अपराध का गठन करने के लिए हथियार के उपयोग के लिए यह आवश्यकता नहीं है कि 'अपराधी' को वास्तव में आग्नेयास्त्र से फायर करना चाहिए या वास्तव में चाकू या खंजर होने पर चाकू मारना चाहिए, लेकिन केवल उसे दिखाना, लहराना, उसे खुलेआम पकड़ना पीड़ित के मन में डर या आशंका पैदा करने और डराने-धमकाने के लिए काफी है।" (पैरा 17)

मौजूदा मामले में चूंकि तथ्य और साक्ष्य यह संकेत नहीं करते कि अपीलकर्ता को ऐसा 'अपराधी' माना जा सकता है, जिसने बन्दूक का इस्तेमाल किया, उसके खिलाफ लगाया गया आरोप और जिसे ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ हाईकोर्ट ने भी आईपीसी की धारा 397 और एमपीडीवीपीके अधिनियम, 1981 की धारा 11/13 के तहत साबित माना है, उस आरोप को बरकरार नहीं रखा जा सकता है।

उसी के आलोक में, न्यायालय ने माना कि अपीलकर्ता को अपराध में भाग लेने की सीमा तक धारा 392 के तहत दी गई सजा टिकाऊ है।

कोर्ट ने आरोपी की सात साल की कठोर कारावास की सजा को निरस्त करते हुए 3 साल की सजा को पर्याप्त माना। चूंकि अपीलकर्ता पहले ही 3 साल, 5 महीने और एक दिन जेल की सजा काट चुका है, इसलिए सजा को भुगता हुआ माना गया।

केस शीर्षक: राम रतन बनाम मध्य प्रदेश राज्य

सिटेशन: 2022 लाइव लॉ (एससी) 14

कोरम: जस्टिस एनवी रमाना, ए जस्टिस एस बोपन्ना, जस्टिस हिमा कोहली

वकील: अपीलकर्ता के लिए श्री शिशिर कुमार सक्सेना, प्रतिवादी के लिए श्री सनी चौधरी

निर्णय पढ़ने के लिए क्लिक करें

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