सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि विलंब माफी अर्जियों में रूटीन स्पष्टीकरण नहीं, बल्कि उचित और स्वीकार्य स्पष्टीकरण आवश्यक है।
जस्टिस आर भानुमति, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हृषिकेश रॉय की बेंच ने दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर से दिल्ली हाईकोर्ट की खंडपीठ के आदेश के खिलाफ दायर अपील पर विचार किया, जिसने 916 दिनों की देरी के आधार पर लेटर पेटेंट अपील को खारिज कर दिया था।
इस संबंध में फैसलों का हवाला देते हुए, बेंच ने कहा कि विलंब माफी अर्जियों के मामले में उदार दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए, हालांकि साथ में ये भी जोड़ा कि चूंकि दूसरे पक्ष के अर्जित अधिकार या प्रतिकूल परिणाम को भी परिप्रेक्ष्य में रखा जाना चाहिए, इसलिए लंबी देरी के मामलों में स्वत: माफी नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि कि हर दिन की देरी को बारीकी से समझाने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन एक उचित और स्वीकार्य स्पष्टीकरण बहुत आवश्यक है।
कोर्ट ने कहाः
"विलंब माफी अर्जी पर विचार पार्टी अर्थात सरकार या सार्वजनिक निकायों की स्थिति पर निर्भर नहीं होगा ताकि एक अलग पैमाना लागू हो, हालांकि अंतिम विचार पार्टियों को न्याय सौंपने पर होना चाहिए। यहां तक कि ऐसे मामले में भी लंबी देरी के लिए माफी स्वतः नहीं होनी चाहिए बल्कि विपरीत पक्ष के अर्जित अधिकारों या प्रतिकूल परिणाम को भी परिप्रेक्ष्य में रखा जाना चाहिए।
उस पृष्ठभूमि में विलंब की माफी पर विचार करते समय, रूटीन सफाई पर्याप्त नहीं होगी, हालांकि यह देरी के औचित्य के लिए "पर्याप्त कारण" इंगित करने की प्रकृति की हो, जो प्रत्येक मामले की पृष्ठभूमि पर निर्भर करेगी और उन्हें तथ्य की स्थिति के आधार पर न्यायालयों द्वारा सावधानी से परखा जाना होगा। कटिजी (सुप्रा) के मामले में विलंब माफी की संपूर्ण रूपरेखा को ध्यान में रखा गया है।"
इस मामले में, 916 दिनों की देरी के लिए दिया गए स्पष्टीकरण थे- (1) सेवानिवृत्ति के कारण कुलपति की अनुपलब्धता और बाद में नए कुलपति की नियुक्ति, (2) मामला कार्यकारी परिषद के समक्ष रखा गया, जिसमें अपील दायर करने के लिए निर्णय लिया गया और उक्त प्रक्रिया ही देरी का कारण थी। पीठ ने कहा कि ये कारण बहुत ठोस नहीं हैं।
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