संज्ञेय अपराध के साथ-साथ गैर-संज्ञेय अपराध की जांच के लिए मजिस्ट्रेट की पहले से मंजूरी जरूरी नहीं: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2021-11-06 07:22 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि एक संज्ञेय अपराध के साथ-साथ एक गैर-संज्ञेय अपराध की जांच के लिए मजिस्ट्रेट की पूर्व मंजूरी अनिवार्य नहीं है।

जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ ने जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ दायर अपील की सुनवाई करते हुए यह टिप्‍पणी की। हाईकोर्ट ने जम्मू-कश्मीर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और रणबीर दंड संहिता की धारा 120 बी के तहत आपराधिक साजिश के लिए दर्ज एफआईआर को रद्द कर दिया था।

हाईकोर्ट ने एफआईआर को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि आपराधिक साजिश के अपराध की जांच के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 155 के अनुसार मजिस्ट्रेट की पूर्व मंजूरी नहीं ली गई थी, जो रणबीर दंड संहिता के अनुसार गैर-संज्ञेय था।

हाईकोर्ट ने मामले को रद्द करने के लिए प्रारंभिक जांच पूरी करने में देरी को भी एक कारण बताया।

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट ने यह मानने में गलती की कि गैर-संज्ञेय अपराध (इस मामले में धारा 120 बी आरपीसी) की जांच के लिए मजिस्ट्रेट की मंजूरी की आवश्यकता थी, क्योंकि पीसी एक्ट के तहत अपराध संज्ञेय थे।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध एक वास्तविक अपराध है। जब पीसी एक्ट के तहत अपराध के संबंध में जांच को साजिश के अपराध के साथ जोड़ा जाता है तो मजिस्ट्रेट की पूर्व मंजूरी की कोई आवश्यकता नहीं होती है।

यह माना गया कि हाईकोर्ट का दृष्टिकोण प्रवीण चंद्र मोदी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, 1965 (1) एससीआर 269 में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विपरीत था, जिसमें यह माना गया था कि धारा 155 सीआरपीसी के तहत पूर्व मंजूरी की आवश्यकता नहीं थी, जब गैर-संज्ञेय अपराध की संज्ञेय अपराध के साथ-साथ संयुक्त रूप से जांच की जा रही है।

हाईकोर्ट द्वारा जम्मू-कश्मीर सीआरपीसी की धारा 155 के तहत पूर्व मंजूरी प्राप्त करने में विफलता पर कार्यवाही को रद्द करने के संबंध में पीठ ने कहा कि,

"भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध एक वास्तविक अपराध है और पीसी एक्ट के तहत अपराध के संबंध में जांच, जब विचार किया जाता है और साजिश के अपराध के साथ जोड़ा जाता है तो मजिस्ट्रेट की पूर्व मंजूरी की कोई आवश्यकता नहीं होती है। केवल इसलिए कि साजिश का अपराध शामिल हो सकता है, मूल अपराध की जांच, जैसा कि वर्तमान मामले में है, पीसी एक्ट के तहत अपराध, जो संज्ञेय है, के लिए मजिस्ट्रेट से मंजूरी की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इससे काफी देरी होगी, जांच प्रभावित होती है। इससे जांच पटरी से उतर जाएगी।"

"इसलिए, हाईकोर्ट ने इस आधार पर आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने में गलती की है कि धारा 120 बी के तहत अपराध जो एक गैर-संज्ञेय है, जम्मू-कश्मीर सीआरपीसी की धारा 155 के तहत आवश्यक पूर्व मंजूरी प्राप्त नहीं हुई है। हाईकोर्ट द्वारा लिया गया विचार इस न्यायालय द्वारा प्रवीण चंद्र मोदी (सुप्रा) के मामले में निर्धारित कानून के ठीक विपरीत है, जिस पर बाद में इस न्यायालय ने बृज लाल पलटा (सुप्रा), सत्य नारायण मुसादी (सुप्रा), मदन लाल (सुप्रा) और भंवर सिंह (सुप्रा) के मामलों में भरोसा किया है।

केस शीर्षक: जम्मू और कश्मीर राज्य बनाम डॉ सलीम उर रहमान | 2021 की आपराधिक अपील सं 1170

सिटेशन: एलएल 2021 एससी 618

कोरम: जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस एएस बोपन्ना

प्रतिनिध‌ित्‍व: राज्य की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता आर वेंकटरमनी; प्रतिवादी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता आर बसंत

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