सीपीसी का आदेश VII नियम 11 - यदि लिमिटेशन कानून और तथ्य का मिश्रित प्रश्न है तो वाद खारिज नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि यदि लिमिटेशन का मुद्दा कानून और तथ्य का मिश्रित प्रश्न है तो नागरिक प्रक्रिया संहिता के आदेश VII नियम 11 (डी) के तहत एक वाद को खारिज नहीं किया जा सकता है।
न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति वी रमासुब्रमण्यम की पीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट के उस फैसले को पलटते हुए यह व्यवस्था दी, जिसमें एक वाद को खारिज करने के दीवानी अदालत के आदेश को बरकरार रखा गया था।
महाराष्ट्र काश्तकारी और कृषि भूमि अधिनियम, 1948 के तहत एक किरायेदारी के संबंध में बिक्री प्रमाण पत्र जारी करने के लिए कृषि भूमि न्यायाधिकरण (एएलटी) द्वारा पारित एक आदेश को रद्द करने की मांग को लेकर विचाराधीन मुकदमा अनिवार्य रूप से दायर किया गया था।
प्रतिवादियों ने दलील दी थी कि 1963 में पारित आदेश को चुनौती देते हुए 1987 में दायर किया गया मुकदमा समय-बाधित (टाइम-बार्ड) था। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि अधिनियम के तहत एएलटी के आदेश के खिलाफ दीवानी वाद को रोक दिया गया था। इन बिंदुओं को उठाते हुए उन्होंने सीपीसी के आदेश VII नियम 11 के तहत वाद को खारिज करने की मांग की। निचली अदालत ने इन दलीलों को स्वीकार कर लिया और वाद खारिज कर दिया गया। बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसे बरकरार रखा था।
वादी ने वाद खारिज किये जाने का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है लिमिटेशन के मुद्दे के संबंध में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वादी ने एक तर्क दिया था कि एएलटी के आदेश के बारे में जानकारी मिलने की तारीख से लिमिटेशन अवधि के भीतर मुकदमा दायर किया गया था। यह दावा सही है या नहीं, यह एक विचारणीय मुद्दा था, और इसे शुरू में ही खारिज नहीं किया जाना चाहिए था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा,
"...आदेश VII नियम 11 के तहत वादपत्र की अस्वीकृति एक दीवानी कार्रवाई को दहलीज पर समाप्त करने के लिए न्यायालय को दी गई एक कठोर शक्ति है। इसलिए, शक्ति के प्रयोग से पहले की शर्तें कठोर हैं और यह विशेष रूप से तब है जब लिमिटेशन के आधार पर वाद को खारिज करने की मांग की जाती है। जब एक वादी दावा करता है कि उसने केवल एक विशेष समय पर कार्रवाई के कारण को जन्म देने वाले आवश्यक तथ्यों की जानकारी मिली है, तो उसे आदेश VII नियम 11 के तहत आवेदन पर विचार करने के चरण में स्वीकार करना होगा।"
न्यायमूर्ति रमासुब्रमण्यम द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया,
"जहां तक लिमिटेशन के आधार पर वाद को खारिज करने का संबंध है, इस बात पर जोर देने की जरूरत नहीं है कि लिमिटेशन तथ्य और कानून का मिश्रित प्रश्न है।"
कोर्ट ने कहा,
"हम एक ऐसे मामले से निपट रहे हैं जहां वादी बिना किसी अनिश्चित शर्तों का दावा करते हैं कि नोटिस उन्हें कभी नहीं भेजा गया और न ही उन पर तामील की गई थी। इसलिए, लिमिटशन के संबंध में मुद्दे का उत्तर, नोटिस जारी करने और उसके तामील होने और वादी को उसकी जानकारी होने के संबंध में साक्ष्य पर निर्भर करेगा। इसलिए, ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ हाईकोर्ट भी, विशेष रूप से इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के मद्देनजर, लिमिटेशन के आधार पर वाद को खारिज करने के मामले में न्यायसंगत नहीं था।"
दूसरे मुद्दे के संबंध में न्यायालय ने अधिनियम के प्रावधानों का हवाला देते हुए कहा कि दीवानी वाद पर प्रतिबंध सही नहीं था। कोर्ट ने कहा कि दीवानी अदालत और उच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित नहीं किया कि अधिनियम के तहत मुकदमे को आगे बढ़ने की अनुमति देने वाली परिस्थितियां वर्तमान मामले में मौजूद हैं या नहीं।
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला,
"...हमारा सुविचारित विचार है कि निचली अदालत और हाईकोर्ट स्पष्ट रूप से आदेश VII नियम 11(डी) के तहत वादपत्र को खारिज करने में गलती कर रहे थे। इसलिए, अपील की अनुमति दी जाती है, तथा ट्रायल कोर्ट एवं हाईकोर्ट के निर्णय और डिक्री को दरकिनार किया जाता है और मुकदमा बहाल करने की अनुमति दी जाती है।"
केस शीर्षक: सलीम डी. अगबोटवाला एवं अन्य बनाम शामलजी ओड्डवजी ठक्कर एवं अन्य
साइटेशन : एलएल 2021 एससी 476