केवल जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के पास यह निर्णय लेने की शक्ति है कि नाबालिग द्वारा किया अपराध जघन्य है या नही : कर्नाटक हाईकोर्ट

Update: 2019-10-06 04:31 GMT

कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि सत्र न्यायालय जज यह तय नहीं कर सकता है कि जुवेनाइल (नाबालिग) द्वारा किया गया अपराध जघन्य है या नहीं और वह मुकदमे को आगे भी नहीं बढ़ा सकता। हाईकोर्ट ने कहा कि यह निर्णय लेने की शक्ति केवल किशोर न्याय बोर्ड (जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड) के पास है। इसी के साथ हाईकोर्ट ने सेशन कोर्ट के एक आदेश को रद्द कर दिया और सेशन कोर्ट को निर्देश दिया है कि वह इस मामले को जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के पास भेज दे।

न्यायमूर्ति के.एन फेनेंद्र ने कोलार जिले के एक सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश को रद्द करते हुए कहा, ''सत्र न्यायाधीश या विशेष न्यायाधीश या बाल मित्र न्यायालय, जिनकी अध्यक्षता सेशन जज द्वारा की जाती हो, के पास जुवेनाइल जस्टिस एक्ट की धारा 15 के तहत कोई आदेश देने की शक्ति नहीं है। यह वैधानिक शक्ति है जो सिर्फ किशोर न्याय बोर्ड के पास निहित है। सत्र न्यायाधीश ने इस बात की पूरी तरह से अनदेखी की है, जैसा कि आदेश से ही देखा जा सकता है।''

यह है पूरा मामला

याचिकाकर्ता पुनीत एस एक अभियुक्त है, जिस पर आईपीसी की धारा 366 ए, धारा 376 (दुष्कर्म) और यौन अपराध से बच्चों की रोकथाम अधिनियम के तहत आरोप लगाया गया था। उसने सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश को चुनौती दी थी। अदालत ने एक जांच कराने के बाद निष्कर्ष निकाला था कि वह अभियुक्त घटना के समय नाबालिग था। हालांकि, जेजे अधिनियम की धारा 15 और 18 के प्रावधानों का उल्लेख किए बिना ही अदालत ने यह कह दिया था कि अभियुक्त ने जघन्य अपराध किया है और यह विशेष रूप से विशेष अदालत के पास अधिकार है कि वह जेजे अधिनियम की धारा 34 के तहत आरोपी की उम्र का निर्धारण कर सके, इसलिए सत्र न्यायालय को मामले की सुनवाई के साथ आगे बढ़ने के लिए अधिकार क्षेत्र प्राप्त होता है।

हाईकोर्ट का रुख

हाईकोर्ट ने कहा,''बेशक, सत्र न्यायाधीश को घटना की तारीख के अनुसार जुवेनाइल की आयु निर्धारित करने के लिए जेजे एक्ट की धारा 34 के तहत पर्याप्त शक्ति मिली है। इस बात पर भी कोई विवाद नहीं है कि सत्र न्यायाधीश ने जन्म प्रमाण पत्र और आधार कार्ड पर विचार करते हुए इस मामले में पूछताछ की है और एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि आरोपी 16 वर्ष से अधिक और 18 वर्ष से कम आयु का था, लेकिन अधिनियम की धारा 15 और 18 का उल्लेख किए बिना, प्रावधानों का यांत्रिक रूप से आदेश में उल्लेख कर दिया गया। इसके अलावा, सत्र न्यायाधीश ने उक्त प्रावधानों की सामग्री को सावधानीपूर्वक देखने की भी आवश्यकता नहीं समझी। केवल इस आधार पर कि, अपराध की प्रकृति जघन्य है, सत्र न्यायाधीश ने मान लिया कि उनको मामले की सुनवाई के साथ आगे बढ़ने की शक्ति मिली है।''

पीठ ने कहा कि

''जेजे एक्ट की धारा 15 व 18 के प्रावधानों को देखने के बाद यह पाया गया है कि कोलार के सेकेंड एडीशनल सेशन जज के पास जेजे एक्ट की धारा 15 के तहत आदेश पारित करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था। सत्र न्यायालय ने अधिनियम के प्रावधानों पर गौर करने की भी परवाह नहीं की और उक्त आदेश पारित करने में अति उत्साह नजर आता है। उपर्युक्त परिस्थितियों में, यह आदेश कानून या तथ्यों,दोनों की ही नजर में टिकाऊ या स्थिर नहीं है। "



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