एनडीपीएस : आरोपी के कब्जे से प्रतिबंधित मादक पदार्थ की बरामदगी न होना जमानत देने का आधार नहीं: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट के तहत किसी आरोपी को महज इस तथ्य के आधार पर जमानत नहीं दी जा सकती कि आरोपी के पास प्रतिबंधित मादक पदार्थ नहीं था।
न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की खंडपीठ ने कहा कि इस तरह का निष्कर्ष एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37(1)(बी)(ii) के तहत आवश्यक जांच के स्तर से अदालत को मुक्त नहीं करता है।
कोर्ट ने दोहराया कि जमानत देते समय कसौटी पर कसने की असली बात यह है कि क्या यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि आरोपी ने कोई अपराध नहीं किया है और क्या जमानत पर रहते हुए आरोपी द्वारा कोई अपराध किए जाने की आशंका है।
इस मामले में हाईकोर्ट ने इस आधार पर जमानत की अनुमति दी थी कि एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों के मद्देनजर एक राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति में तलाशी ली गई थी, लेकिन व्यक्तिगत तलाशी के दौरान आरोपी के पास से कुछ भी आपत्तिजनक बरामद नहीं हुआ था। हालांकि, कार की तलाशी लेने पर उस जगह दो पॉलिथीन के पैकेट मिले, जहां वाइपर कार के फ्रंट बोनट से जुड़े होते हैं।
धारा 19, 24 या 27ए के तहत दंडनीय अपराधों और वाणिज्यिक मात्रा से जुड़े अपराधों के लिए धारा 37(1)(बी)(ii) के तहत जमानत देने की सीमाएं हैं:
(i) अभियोजक को जमानत के आवेदन का विरोध करने का अवसर दिया जाना चाहिए; तथा
(ii) 'विश्वास करने के लिए उचित आधार' मौजूद होना चाहिए कि (ए) व्यक्ति ऐसे अपराध का दोषी नहीं है; और (बी) जमानत पर रहते हुए उसके कोई अपराध करने की संभावना नहीं है।
अपील में, कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की अनदेखी की और उन परिस्थितियों पर प्रकाश डाला जो इस मुद्दे के लिए महत्वपूर्ण थीं कि क्या जमानत देने का मामला स्थापित किया गया था।
बेंच ने कहा:
"24 जहां तक प्रतिवादी के कब्जे से प्रतिबंधित मादक पदार्थ की बरामदगी के संबंध में हाईकोर्ट के निष्कर्ष का संबंध है, हमने देखा है कि 'भारत सरकार बनाम रतन मलिक' मामले में, इस न्यायालय की दो-न्यायाधीशों की पीठ ने एक आरोपी की जमानत रद्द कर दी थी और उच्च न्यायालय के निष्कर्ष को उलट दिया था, जिसने यह माना था कि चूंकि एक ट्रक के केबिन के ऊपर एक विशेष रूप से बनाए गए स्थान से प्रतिबंधित पदार्थ (हेरोइन) बरामद किया गया था, लेकिन आरोपी के 'कब्जे' में कोई प्रतिबंधित पदार्थ नहीं पाया गया था। कोर्ट ने कहा है कि केवल प्रतिबंधित पदार्थ के कब्जे पर एक निष्कर्ष निकालने से धारा 37(1)(बी) के मानक पूरे नहीं हुए थे और हाईकोर्ट ने विवेक का उपयोग नहीं किया था। 'रतन मलिक (सुप्रा)' मामले में इस न्यायालय के निर्णय के अनुरूप, हमारा विचार है कि हाईकोर्ट द्वारा प्रतिवादी के कब्जे से प्रतिबंधित पदार्थ का न मिलने का निष्कर्ष एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37(1)(बी)(ii) के तहत आवश्यक जांच के स्तर से अदालत को मुक्त नहीं करता है।"
इस तर्क के संबंध में कि एनडीपीएस अधिनियम की धारा 42 का पालन नहीं किया गया था, कोर्ट ने कहा कि ट्रायल के दौरान उक्त प्रश्न को उठाया जाना चाहिए।
पहले के फैसलों का हवाला देते हुए, कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रतिबंधित पदार्थों के कब्जे की जानकारी किसी मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से ली जानी चाहिए। इसने कहा कि कई व्यक्तियों वाले सार्वजनिक परिवहन वाहन के मामले में मादक पदार्थों की बरामदगी का मानक अलग होगा, बनिस्पत एक निजी वाहन से बरामदगी के, जिसमें एक-दूसरे को जानने वाले कुछेक व्यक्ति मौजूद हों।
कोर्ट ने कहा,
"मोहन लाल बनाम राजस्थान सरकार (2015) 6 एससीसी 222' मामले में, इस न्यायालय ने यह भी कहा कि "कब्जे" शब्द का अर्थ शत्रुता के साथ भौतिक कब्जा हो सकता है; निषेध के साथ प्रतिबंधित पदार्थों की कस्टडी; छुपाने के परिणामस्वरूप प्रभुत्व और नियंत्रण का प्रयोग; या व्यक्तिगत जानकारी के रूप में प्रतिबंधित पदार्थों की मौजूदगी का अस्तित्व और इस जानकारी के आधार पर इरादा।"
इस मामले में इन सिद्धांतों को लागू करते हुए बेंच ने हाईकोर्ट के आदेश को निरस्त कर दिया।
साइटेशन : एलएल 2021 एससी 489
केस का नाम: भारत सरकार बनाम मोहम्मद नवाज खान
मामला संख्या/ दिनांक: सीआरए 1043/2021 / 22 सितंबर 2021
कोरम: जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस बीवी नागरत्न
वकील: भारत सरकार के लिए एएसजी एसवी राजू, प्रतिवादी के लिए वकील राकेश दहिया
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