एनडीपीएस मामलों में अपील लंबित रहने के दौरान महज समय बीतते जाना सजा निलंबित करने और जमानत मंजूर करने का आधार नहीं हो सकता : सुप्रीम कोर्ट

“इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि सजा निलंबित किये जाने और जमानत मंजूरर किये जाने से पहले दोषी को एनडीपीएस कानून की धारा 37 के सख्त प्रावधानों का सामना करना होगा और महज समय बीतते जाने को इसका आधार नहीं करार दिया जा सकता।”

Update: 2020-09-13 06:15 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एनडीपीएस मामलों में अपील लंबित रहने के दौरान महज समय बीत जाने को सजा निलंबित करने और जमानत मंजूर करने का आधार नहीं करार दिया जा सकता।

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की खंडपीठ ने हालांकि मौजूदा मामले में अपीलकर्ता को जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया, लेकिन कहा कि नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोफिक सब्सटांसेज (एनडीएस) एक्ट, 1985 के तहत दोषी व्यक्ति की सजा निलंबित करने और जमानत मंजूर करने से पहले उसे इस कानून की धारा 37 की सख्त प्रावधानों का सामना करना होगा।

एनडीपीएस कानून के तहत दोषी ठहराया गया शेरू करीब आठ वर्ष से हिरासत में है। उसने दलील दी थी कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले को प्राथमिकता के आधार पर निपटाने के निर्देश के बावजूद, यह मामला अभी तक सुनवाई के लिए सूचीबद्ध नहीं हो सका है। इस दलील का अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) ने यह कहते हुए विराध किया कि अपील लंबित रहने के दौरान लंबा समय बीत जाने का सामान्य सिद्धांत एनडीपीएस एक्ट की धारा 37 के कठोर प्रावधानों के मद्देनजर सजा निंलबित करने और जमानत मंजूर करने का आधार नहीं हो सकता।

एएसजी ने 'भारत सरकार बनाम रतन मलिक उफ हाबलु (2009) 2 एससीसी 624' के मामले में दिये गये फैसले पर भरोसा जताया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील पर विचार किया था। हाईकोर्ट ने उस मामले में आरोपी को दो बिंदुओं के आधार पर जमानत दे दी थी, (i) दोषी तीन साल से जेल में बंद था और (ii) दोषी की अपील की सुनवाई सात साल के भीतर होने का चांस नहीं दिख रहा। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के उस आदेश को निरस्त करते हुए कहा था, "हमारा मानना है कि संबंधित परिस्थितियां जमानत के उन मामलों में प्रासंगिक हो सकती हैं जो भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 के तहत दोषी ठहराये जाने से संबंधित हैं, लेकिन ये परिस्थितियां एनडीपीएस कानून की धारा 37 के उपबंध (बी) के उपखंड (1) में वर्णित जरूरी आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।"

इन विरोधी दलीलों के संबंध में बेंच ने कहा :

"हमने मामले में गम्भीरता से विचार किया है और इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि सजा निलंबित किये जाने और जमानत मंजूरर किये जाने से पहले दोषी को एनडीपीएस कानून की धारा 37 का सख्तियों का सामना करना होगा और महज केवल समय बीतते जाने को इसका आधार नहीं करार दिया जा सकता।"

हालांक कोविड महामारी की स्थिति को ध्यान में रखते हुए बेंच ने कहा :

"हम असामान्य दौर से गुजर रहे हैं जहां कोविड महामारी की स्थिति भीषण है। हम इस बात से भी अवगत हैं कि इस अदालत ने जेलों में भीड़भाड़ कम करने के लिए कैदियों को (पैरोल और जमानत पर) रिहा करने का आदेश दिया है, लेकिन वह केवल अधिकतम सात साल की सजा वाले मामलों पर ही लागू है। मामले में उपरोक्त तथ्यों एवं परिस्थितियों के मद्देनजर हम ट्रायल कोर्ट को संतुष्ट करने वाली शर्तों के तहत अपीलकर्ता को जमानत पर रिहा किये जाने को उचित मानते हैं।"

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह आदेश मामले में पेश किये गये तथ्यों के आघार पर जारी किया गया है और इसे दृष्टांत के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए।

केस का ब्योरा

केस का नाम : क्रिमिनल अपील नं. 585-586/ 2020

कोरम : न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी

वकील : सीनियर एडवोकेट एन के मोदी, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एस वी राजू 

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