अगर मामले का सीधा असर बोलने की स्वतंत्रता पर है तो मजिस्ट्रेट बिना कुछ सोचे इस मामले में एफआईआर दर्ज कराने का आदेश नहीं दे सकते : मद्रास हाईकोर्ट

Update: 2019-10-28 05:51 GMT

मद्रास हाईकोर्ट ने 90 साल के एक तमिल लेखक के राजनारायणन के खिलाफ आपराधिक मामले को निरस्त करते हुए मजिस्ट्रेट से कहा कि वह बिना कुछ सोचे समझे एफआईआर दर्ज करने का आदेश नहीं दें अगर इस मामले का सीधा प्रभाव व्यक्ति के बोलने की आजादी पर होता है। राजनारायणन के खिलाफ आरोप यह था कि उन्होंने अनुसूचित जाति समुदाय का कथित रूप से अपमान किया है।

पेरूमल मुरुगन के मामले पर भरोसा जताते हुए हाईकोर्ट ने कहा,

"यह सही है कि शिकायत के स्तर पर मजिस्ट्रेट को सिर्फ शिकायत में जो आरोप लगाए गए हैं उस तक ही खुद को सीमित रखना चाहिए। उसको प्रथम दृष्टया सिर्फ यह देखना है कि आरोपी के खिलाफ मामला चलाने के लिए पर्याप्त आधार है कि नहीं...उससे यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह इस बारे में विस्तृत चर्चा करेगा।

न तो मजिस्ट्रेट और न ही पुलिस को इस मामले में संज्ञान लेने और मामले को दर्ज करने में किसी भी तरह का जोश दिखाना चाहिए। हर बार जब उनके पास इस तरह की शिकायतें आती हैं तो उन्हें बोलने की आजादी के बारे में अपने कानूनी ज्ञान को खंगालना चाहिए।"

जज ने मजिस्ट्रेट को पेरूमल मुरुगन मामले में आये प्रसिद्ध फैसले का अध्ययन करने की सलाह दी, जिसे मद्रास हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने लिखा था।

न्यायमूर्ति जीआर स्वामीनाथन ने कहा कि मजिस्ट्रेट को गौतम भाटिया की पुस्तक 'Offend, Shock or Disturb' और अभिनव चंद्रचूड़ की पुस्तक 'Republic or Rhetoric' पढ़ना चाहिए।

"किसी भी सभ्य समाज का एक पैमाना यह है क वह अपने कलाकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों के किस तरह पेश आता है," न्यायमूर्ति स्वामीनाथन ने कहा. उन्होंने मजिस्ट्रेट से कहा कि इस तरह के मामले में उन्हें बहुत ही सावधान रहना चाहिए।" 

 49 बुद्धिजीवियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का मामला 

अभी हाल ही में बिहार में मुजफ्फरपुर के जिला मजिस्ट्रेट ने ऐसे 49 बुद्धिजीवियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया जिन्होंने प्रधानमंत्री को देश में हो रहे कुछ अस्वाभाविक घटनाओं पर चिंता जताते हुए एक खुला ख़त लिखा था। इन लोगों एन रामचन्द्र गुहा, अपर्णा सेन, मणि रत्नम जैसे लोग शामिल थे। यह मामला मुजफ्फरपुर के एक वकील सुधीर कुमार ओझा ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में दायर किया था।

याचिकाकर्ता राजनारायणन ने हाईकोर्ट में आवेदन दायर कर अपने खिलाफ न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में लंबित मामले को निरस्त करने की मांग की थी। यह मामला अनुसूचित जाति एवं जनजाति (उत्पीडन निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(x) और आईपीसी की धारा 504 के तहत पी कथिरेसन ने दायर की थी जो तमिलनाडु के 'पल्लर' समुदाय के हैं। उनका आरोप था कि 'द संडे इंडियन' नामक पत्रिका में छपे अपने साक्षात्कार में उन्होंने दलितों को संबोधित करते हुए उनके खिलाफ 'अवन' शब्द का प्रयोग किया जबकि अन्य जातियों के लिए 'अवर' शब्द का प्रयोग किया। यह आरोप लगाया गया कि 'अवन' अपमानसूचक शब्द है।

जज ने कथिरेसन की दलील नहीं मानी और कहा क मदुरै के एक तमिल विद्वान् जगन्नाथ के अनुसार तमिल साहित्य में 'अवन' का प्रयोग अधिकतर पुरुष जेंडर के लिए प्रयुक्त हुआ है और यह अपमानसूचक है कि नहीं यह सन्दर्भ पर निर्भर करता है, लेकिन संगम साहित्य के समय से ही इस शब्द का प्रयोग ऐसे लोगों के लिए भी होता आया है जिनका समाज में काफी आदर है। 



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