हमारे सामने बड़ी संख्या में मामले लंबे समय से जेल में बंद कैदियों से जुड़े हैं, कानूनी सहायता तक और अधिक पहुंच के लिए एक प्रणाली क्यों नहीं बनाई जा सकती? : जस्टिस एस के कौल
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने शनिवार को कहा कि जब हम उपलब्ध कानूनी सहायता के साथ देश में नामांकित वकीलों की संख्या की तुलना करते हैं, विशेष रूप से समाज के सामाजिक-आर्थिक स्तर के संदर्भ में, जहां बड़ी संख्या में वादी मुकदमेबाजी का खर्च नहीं उठा सकते हैं, तो यह चिंता का विषय है।
जस्टिस कौल ने जोर देकर कहा,
''कानूनी सहायता देने वाले को अपने काम के प्रति सहानुभूति होनी चाहिए। नहीं तो आप जो करते हैं उसमें आपका दिल नहीं लगेगा। इसीलिए जस्टिस चंद्रचूड़ ने केवल पैनल में शामिल वकीलों के बजाय देश के सभी वकीलों से अपील करने की बात कही थी, क्योंकि वे भी अपने प्रियजनों की कुछ समस्याओं के लिए कुछ कर सकें या उनके लिए समय समर्पित करने के इच्छुक हों। संभव है कि किसी के पास सामान्य कारण के लिए देने को समय न हो, लेकिन शायद विशिष्ट कारणों समय देने को इच्छुक हो।"
आपराधिक क्षेत्राधिकार में न्याय की पहुंच के संबंध में मामलों की विषम स्थिति को देखते हुए न्यायमूर्ति कौल ने उन मुद्दों में से एक के रूप में चिह्नित किया कि एक प्रयास किया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अदालत और कानूनी सेवाओं के समक्ष अपना मामला पेश करने का मौका मिले और विधिक सेवा अधिकारियों को इसे साकार करने में मदद करनी चाहिए- "हम अपनी कार्यवाही में पाते हैं कि बड़ी संख्या में मामले अब भी सामने आ रहे हैं, जहां लंबे समय से जेल में बंद लोग, 15-16 बाद ही अपनी सजा के खिलाफ शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाने की क्षमता प्राप्त करते हैं, जहां वे समय से पहले रिहाई के हकदार भी हो सकते थे। हमारे द्वारा यह सुनिश्चित करने के लिए पहल की गई है कि एक मजबूत प्रणाली स्थापित की जाए। मैं किसी भी प्रणाली के संस्थागतकरण में सच्चा विश्वास रखता हूं। ऐसा क्यों हो कि जब किसी सजा पर हाईकोर्ट पुष्टि करता है, तो उस स्तर पर ही सर्वोच्च न्यायालय जाने के लिए कानूनी सहायता क्यों नहीं मिल पाती?"
उन्होंने विस्तृत तौर पर व्याख्या करते हुए कहा कि इसका एक कारण कैदी के साथ विधिक सहायता पहुंचाने वालों के तालमेल की कमी है, और इस संदर्भ में, उन्होंने अपने मामलों का विश्लेषण करने और उन्हें कानूनी सहायता अधिकारियों से जोड़ने में पैरालीगल व्यक्तियों के महत्व पर जोर दिया।
न्यायमूर्ति कौल ने कहा,
"दूसरा, क्या हम इसके तुरंत बाद एक्सेस प्रदान कर सकते हैं, खासकर उन मामलों में जहां 14 या 15 साल की अवधि बीत चुकी है और रिहाई पर विचार के प्रश्न की जांच की जानी है? मुझे लगता है कि हमारी न्यायिक प्रणाली में अधिक समय लगना बड़ी बीमारी है, चाहे वह दीवानी प्रक्रिया हो या आपराधिक। और उसके बाद यह कहने में लगने वाला समय कि सभी उपाय समाप्त हो गए हैं। हमारे पास एक ऐसा मामला है जहां एक व्यक्ति हिरासत में है और हमारे पास अलग-अलग समय पर यह कहते हुए लोग आ रहे हैं कि वे उस समय नाबालिग थे। हाल ही में एक हत्या के मामले में, बार-बार सत्यापन से पता चला है कि वह न केवल किशोर था, बल्कि 13 साल का था जब अपराध हुआ था। आज, उसके लिए रिपोर्ट आई है। ऐसा क्यों हो रहा है? समस्या जांच के विभिन्न चरणों में कनेक्टिविटी की है, जो न केवल आपराधिक बल्कि दीवानी मामलों में भी उच्चतम स्तर तक जरूरी है। मुकदमेबाजी से स्वतंत्रता उतनी ही आवश्यक है जितनी कि व्यक्ति में स्वतंत्रता।"
सिविल मुकदमेबाजी के संबंध में न्यायाधीश ने कहा कि दीवानी विवादों को अनावश्यक रूप से आपराधिक रंग देने से बचने के लिए सीमित स्तरों के साथ साथ समयबद्ध जांच पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा,
"अधिकांश दीवानी मुकदमे जो हमारे सामने आ रहे हैं, अगर मैं मुकदमे की तारीख देखता हूं, तो वह 25 साल पहले की तारीख होती है। मैं अपील दायर करने की तारीख भी नहीं देख रहा हूं, और यहां तक कि वह भी 10 से 12 साल पहले के ही होंगे। ये वे लोग हैं जो मुकदमेबाजी करने के लिए साधन होने के बावजूद भी खुद को पूरी तरह से समाप्त कर चुके होंगे!"
न्यायमूर्ति कौल ने सिफारिश की कि जो लोग अनिश्चित काल से दीवानी कानूनी प्रणाली में फंसे हुए हैं-
" चाहे सर्विस मैटर हों या अपील या मूल अधिकार क्षेत्र में- कुछ आंकलन जरूर किया जाना चाहिए कि आखिल कितने समय में या अवधि के भीतर इन विवादों का अंतत: समाधान कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने आगे कहा, "दीवानी विवादों को आपराधिक रंग दिया जाता है। यह माना जाता है कि एक दीवानी मुकदमे के निर्धारण में कई दशक लगेंगे, इसलिए आइए हम किसी तरह का दबाव बनाने की कोशिश करें और आपराधिक मामलों के रूप में समस्या का हल करने का प्रयास करें। यह उस दीवानी मामलें में निराशा का एक तत्व है, जो उस गति से काम नहीं करती है जिस गति की उम्मीद की जाती है।"
न्यायमूर्ति कौल ने कहा,
"बहुत सारे विवादों को जांच के विभिन्न चरणों में ले जाने की आवश्यकता नहीं है। मेरा मानना है कि हमें कई जांच स्तरों को प्रतिबंधित करना होगा- राजस्व मामलों में छह स्तर होते हैं, जबकि अन्य में थोड़ा कम हो सकता है। हमें निर्धारित करना होगा कि अंतत: प्रत्येक मामले को कितने चरणों से गुजरना है और यह कब अंतिम रूप प्राप्त करेगा। हमें एक सर्वेक्षण करने की आवश्यकता है कि मुकदमेबाजी के कौन से क्षेत्र प्रक्रिया को लम्बा खींचते हैं और फिर यह देखने के लिए कि कानूनी सेवा प्राधिकरण प्रक्रिया के माध्यम से इसे कैसे करना है। कृषक समाजों में बड़ी संख्या में दीवानी मुकदमे हैं, और पंजाब एवं हरियाणा और तमिलनाडु का मेरा अनुभव यही कहता है। दूसरी अपीलें दूसरी सबसे बड़ी पेंडेंसी हैं! और ये मुकदमे छोटी-छोटी बातों को लेकर हैं, जैसे एक खेत से दूसरे खेत में बहता पानी! लोगों ने लड़ने की क्षमता खुद से समाप्त कर ली है! अंत में कोई पार्टी नहीं बचती।"
शनिवार को कार्यक्रम की शुरुआत में केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने यह दिखाने के लिए वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की बात कही थी कि वर्तमान सरकार जहां लोगों को न्याय प्रदान करने पर केंद्रित है, वहीं उसका ध्यान 'ईज ऑप लिविंग' सुनिश्चित करने पर भी है। मंत्री ने कहा था, "जब हम 'ईज़ ऑफ़ लिविंग' की बात करते हैं, तो हमारे समाज को समृद्ध बनाने के लिए 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' बहुत महत्वपूर्ण है। मुझे वाणिज्यिक न्यायालयों के बारे में कुछ कहना है। आप सभी वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम 2015 के लाभों को जानते हैं।
किसी की कानून की सफलता काफी हद तक कार्यपालिका के स्तर पर इसके कार्यान्वयन के साथ-साथ न्यायपालिका के सहयोग पर निर्भर करता है। यद्यपि देश में मुकदमेबाजी व्यापक तौर पर दीवानी और आपराधिक दो क्षेत्रों में विभाजित है, वाणिज्यिक अदालत अधिनियम 2015 एक क्षेत्र का निर्माण करता है जहां दीवानी मामलों के सक्षम अधिवक्ताओं और प्रशिक्षित न्यायाधीशों को इसके लाभ के बारे में प्रचार प्रसार करने की आवश्यकता है। तदनुसार, वाणिज्यिक अदालत अधिनियम यह मानता है कि वाणिज्यिक विवादों में अनुभव रखने वाले न्यायाधीश उन मामलों के शीघ्र निपटान के लिए महत्वपूर्ण हैं।
अधिनियम द्वारा प्रदान किए गए अन्य महत्वपूर्ण कदम मुकदमे में बहस पूरी होने के बाद उसके प्रबंधन का है, जिसके तहत अदालत मुद्दे तय करेगी और उसकी सुनवाई के लिए मैटर तय करेगी, लिखित दलीलें फाइल करने को कहेगी और बहस को समयबद्ध तरीके से पूरा करेगी। अधिनियम की आवश्यकता है कि मुकदमे में तारीख देने की प्रथा को नगण्य रखने का प्रयास किया जाना चाहिए। व्यावसायिक विवादों के समाधान के लिए पसंदीदा माध्यम के रूप में मध्यस्थता प्रदान करने के लिए 2018 में पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता और निपटान तंत्र की शुरुआत की गई थी। कानून का प्रयास अदालतों के बोझ को कम करना है, लेकिन भारतीय कानूनी प्रणाली में निवेशकों का विश्वास भी बढ़ाना है ताकि अधिक निवेश आकर्षित किया जा सके।"
न्यायमूर्ति कौल ने कहा,
"वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम पर चर्चा हुई थी। लेकिन आम आदमी के दीवानी मुकदमे व्यावसायिक विवाद नहीं हो सकते हैं- वे विभाजन, भूमि विवाद आदि पर उत्पन्न होने वाले परिवार में असामंजस्य की प्रकृति में हैं। इस पर भी उतना ही ध्यान देने की जरूरत है।"