INX मीडिया घोटाला : दिल्ली हाईकोर्ट ने संसद से आर्थिक अपराधियों के अग्रिम ज़मानत के प्रावधानों को सीमित करने को कहा, पढ़िए फैसला

Update: 2019-08-21 11:52 GMT

INX मीडिया घोटाले में पूर्व केंद्रीय वित्तमंत्री पी चिदम्बरम की अग्रिम ज़मानत याचिका पर सुनवाई के क्रम में दिल्ली हाईकोर्ट ने मंगलवार को संसद से आग्रह किया कि वह गिरफ़्तारी-पूर्व ज़मानत दिए जाने के प्रावधानों को सीमित करे और आर्थिक अपराधों के चर्चित मामलों के आरोपियों को ज़मानत नहीं दे।

न्यायमूर्ति सुनील गौर ने कहा कि आर्थिक अपराध पूरे संज्ञान में बहुत ही सलीक़े से किए जाते हैं। इस तरह के मामलों में मंशा स्पष्ट होती है और इसलिए इस तरह के अपराधियों के साथ उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा को नज़रंदाज़ करते हुए दृढ़ता से पेश आना चाहिए।

चिदम्बरम जो इस समय राज्यसभा के सदस्य हैं, उन पर इस पूरे घोटाले का मास्टरमाइंड होने का आरोप है। उन पर 2007 में वित्तमंत्री रहते हुए इस मीडिया ग्रूप को विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड की अनुमति में अनियमितता के बावजूद 305 करोड़ रुपए का विदेशी धन प्राप्त करने की छूट देने का आरोप है। ऐसा आरोप है कि इस मीडिया ग्रुप का नियंत्रण उनके बेटे के हाथ में था।

अदालत ने कहा जब आरोपी अदालत के संरक्षण में था उस दौरान उनसे जो सवाल पूछे गए उसका उन्होंने कोई सहयोग नहीं करते हुए जवाब देने में टालमटोल किया। परिणामस्वरूप अपराध की गंभीरता को देखते हुए यह ज़रूरी समझा गया कि आरोपी को हिरासत में लेकर उससे पूछताछ की जाए ताकि इस मामले में आगे की बातों का पता चल सके और पैसे की लेनदेन के सम्पूर्ण चक्र का ख़ुलासा किया जा सके। "कानून बनाने वालों को बिना किसी डर के क़ानून तोड़ने की इजाज़त नहीं दी जा सकती है," न्यायमूर्ति गौर ने कहा।

उन्होंने वाईएस जगन मोहन रेड्डी बनाम सीबीआई (2013) 7 SCC 439 मामले का उदाहरण दिया जिसमें याचिकाकर्ता जो इस समय आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, को धन शोधन के एक मामले ज़मानत नहीं दी गई। इस मामले में अदालत ने कहा था "आर्थिक अपराध एक अलग तरह का अपराध है और इस मामले में ज़मानत पर अलग रुख अख़्तियार करने की ज़रूरत है। आर्थिक अपराध एक गहरी साज़िश का नतीजा होते हैं और इसमें सार्वजनिक धन का भारी नुक़सान होता है और इसलिए इसपर गंभीरता से ग़ौर करने की ज़रूरत है और इसे देश की अर्थव्यवस्था को नुक़सान पहुँचाने वाला गंभीर अपराध माना जाता है…"

"…समय आ गया है जब संसद से क़ानून में सम्यक् संशोधन का आग्रह किया जाए ताकि ताकि गिरफ़्तारी-पूर्व ज़मानत को सीमित किया जा सके और ऐसा प्रावधान किया जाए कि ये आर्थिक अपराधों के इस मामले जैसे चर्चित मामलों पर लागू नहीं हों…अमूमन यह देखा गया है कि जब आर्थिक अपराधी अग्रिम ज़मानत पर होते हैं तो उस दौरान जो जाँच होती है वह बहुत ही अगंभीर होता है, जैसा कि इस मामले में हुआ है। इसकी वजह से न केवल बड़े घोटाले का मामला कमज़ोर हो जाता है बल्कि यह अभियोजन को कमज़ोर करता है। यह अदालत इस संवेदनशील मामले को उस तरह निरर्थक नहीं होने देगा जैसा कि अन्य चर्चित मामलों में हुआ है," अदालत ने कहा।

अदालत ने गौतम कुंडू बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2015) 16 SCC 1 के मामले में आए फ़ैसले का भी इस संदर्भ में ज़िक्र किया जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने ज़मानत की याचिका नामंज़ूर कर दी थी। अदालत ने उस समय कहा था, "…हम यह नहीं भूल सकते कि यह मामला धन शोधन का है जो हमारी राय में देश की अर्थव्यवस्था देश के हित के लिए एक गंभीर ख़तरा है। हम इस बात से मुँह नहीं मोड़ सकते कि ये योजनाएँ बहुत ही सोच समझकर और जानबूझकर निजी हित साधने के लिए बनाई गई हैं भले ही समाज के लोग इससे कितना ही प्रभावित क्यों ना हों"।

इस तरह अदालत ने सुझाव दिया कि संसद सार्वजनिक धन से जुड़े गंभीर अपराधों के मामलों में अग्रिम ज़मानत के प्रावधानों को सीमित करे। यह कहा गया कि देश में सफ़ेदपोश अपराध काफ़ी बढ़ गया है और यह समय का तक़ाज़ा है कि इनसे दृढ़ता से निपटा जाए भले ही इसमें संलिप्त व्यक्ति का दर्जा कुछ भी हो"।


  

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