अगर राज्यपाल विधेयकों पर अड़े रहे तो राजनीतिक समाधान भी हैं, अदालतें समय-सीमा तय नहीं कर सकतीं: सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा

Update: 2025-08-21 10:08 GMT

सॉलिसिटर जनरल ने विधेयकों को मंज़ूरी देने से संबंधित राष्ट्रपति के संदर्भ की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में कहा कि अगर कुछ राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर अड़े रहें तो राज्यों को न्यायिक समाधानों के बजाय राजनीतिक समाधान तलाशने होंगे।

देश की हर समस्या का समाधान अदालतें नहीं हैं, यह बात सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर की संविधान पीठ के समक्ष कही।

यदि राज्यपाल विधेयकों में देरी कर रहे हैं तो इससे निपटने के तरीके के बारे में पीठ के प्रश्नों का उत्तर देते हुए एसजी मेहता ने कहा:

"व्यावहारिक उत्तर। मान लीजिए कि कोई राज्यपाल विधेयकों पर विचार कर रहा है तो राजनीतिक समाधान हैं। ऐसे समाधान हो रहे हैं और हर जगह राज्य को सुप्रीम कोर्ट जाने की सलाह नहीं दी जाती। मुख्यमंत्री जाकर प्रधानमंत्री से अनुरोध करते हैं। मुख्यमंत्री जाकर राष्ट्रपति से मिलते हैं। ऐसे प्रतिनिधिमंडल जाते हैं, जो कहते हैं कि ये विधेयक लंबित हैं, कृपया राज्यपाल से बात करें, उन्हें किसी न किसी तरह निर्णय लेने दें। टेलीफोन पर उन्हें सुलझा लिया जाता है। मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राज्यपाल के साथ संयुक्त बैठकें होती हैं। इस तरह के गतिरोध को सुलझा लिया जाता है। इससे किसी निर्णय द्वारा समय-सीमा निर्धारित करने का अधिकार क्षेत्र नहीं मिलता। यही प्रश्न है। संविधान द्वारा प्रदत्त समय-सीमा के अभाव में क्या न्यायालय द्वारा ऐसी समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है, भले ही उसका कोई औचित्य हो? पिछले कई दशकों से हर राज्य में ऐसे मुद्दे उठ रहे हैं। लेकिन जब राजनेता और राजनीतिक परिपक्वता काम करती है तो वे केंद्र में संवैधानिक पदाधिकारियों से मिलते हैं, वे मिलते हैं और चर्चा करते हैं... वे एक साथ आते हैं और एक राजनीतिक समाधान मिल गया है। ये समस्या के समाधान हैं।

थोड़ी सी अप्रिय दलील देकर मैं कह रहा हूं कि इस देश की हर समस्या का समाधान यहां (सुप्रीम कोर्ट) नहीं हो सकता। देश में कुछ समस्याएं ऐसी भी हैं, जिनका समाधान आपको व्यवस्था में ही मिल जाता है।"

इस पर जस्टिस सूर्यकांत ने पूछा,

"राज्यपाल की निष्क्रियता के विरुद्ध यह राज्य दर राज्य, कार्रवाई दर कार्रवाई, या निष्क्रियता के आधार पर अलग-अलग हो सकता है, अगर पीड़ित राज्य न्यायालय का दरवाजा खटखटाता है। आपके अनुसार, न्यायिक समीक्षा पूरी तरह से वर्जित है?"

एसजी ने कहा कि वह राज्यपाल की कार्रवाई की न्यायसंगतता के प्रश्न पर नहीं, बल्कि इस प्रश्न पर थे कि क्या न्यायालय राज्यपाल को एक समय-सीमा के भीतर कार्रवाई करने का निर्देश दे सकता है।

चीफ जस्टिस बीआर गवई ने टिप्पणी की,

"अगर कोई गलती हुई है, तो उसका समाधान भी होना चाहिए।"

एसजी ने उत्तर दिया,

"सभी समस्याओं के लिए यह मंच समाधान नहीं हो सकता।"

चीफ जस्टिस ने पूछा,

"अगर कोई संवैधानिक पदाधिकारी बिना किसी कारण के अपना कार्य नहीं करता है तो क्या इस न्यायालय के हाथ बंधे हुए हैं?"

जस्टिस कांत ने आगे कहा,

"यदि व्याख्या का अधिकार सुप्रीम कोर्ट में निहित है तो कानून की व्याख्या का परीक्षण न्यायालय को ही करना होगा।"

एस.जी. ने उत्तर दिया,

"न्यायसंगतता एक अलग बात है, व्याख्या करते समय संविधान में शब्द जोड़ना एक अलग बात है।"

औचित्य अधिकार क्षेत्र प्रदान नहीं कर सकता

सुनवाई के दौरान, जस्टिस नरसिम्हा ने कहा,

"आप कहते हैं कि हम समय-सीमा निर्धारित नहीं कर सकते, लेकिन प्रक्रिया को पूरा करने का कोई न कोई तरीका तो होना ही चाहिए।"

जवाब में एस.जी. ने कहा कि समय-सीमा निर्धारित करने का औचित्य न्यायालय को समय-सीमा निर्धारित करने का अधिकार क्षेत्र प्रदान नहीं करता।

आगे कहा गया,

"आपकी आपत्ति उचित रूप से समय-सीमा निर्धारित करने के औचित्य पर है, लेकिन इससे न्यायालय को अधिकार-क्षेत्र प्राप्त नहीं होगा। हमारे पास ऐसे मामलों की बाढ़ नहीं आई है। इनमें ऐसी घटनाएं घटी हों। ऐसे उदाहरण हैं, जहां एक या दो राज्य आए। यदि यही समस्या है तो यही समस्या हो सकती है, इसका समाधान संसद के पास है। माननीय जजों ने कहा कि इसे देखते हुए हम संसद से अनुरोध करते हैं, लेकिन माननीय जज निर्देश नहीं देते। माननीय जज कभी भी किसी समन्वयकारी संवैधानिक पदाधिकारी को निर्देश नहीं देते। यही संवैधानिक शिष्टाचार है।"

संविधान ने जहां भी आवश्यक हो, समय-सीमाएं निर्दिष्ट की हैं।

एस.जी. ने पीठ को बताया कि संविधान में कम से कम इकतीस ऐसे उदाहरण हैं, जहां विशिष्ट समय-सीमाएं उल्लिखित हैं, क्योंकि संविधान निर्माताओं का मानना ​​था कि ये कार्य समयबद्ध होने चाहिए। जब ​​भी समय-सीमाएं निर्दिष्ट नहीं की जाती हैं तो इसे जानबूझकर की गई चूक के रूप में देखा जाना चाहिए।

उन्होंने कहा,

"संविधान निर्माता इस बात से अवगत थे कि कुछ कार्यों के लिए समय-सीमाएं आवश्यक हैं, जबकि कुछ के लिए नहीं।"

जब अनुच्छेद 200 और 201 में किसी समय-सीमा का उल्लेख नहीं है तो न्यायालय ऐसी किसी समय-सीमा का उल्लेख नहीं कर सकता।

एस.जी. ने आगे कहा कि तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में यह विचार कि अनुच्छेद 200 के तहत कार्य करते समय राज्यपाल के पास कोई विवेकाधिकार नहीं है, शमशेर सिंह और नबाम रेबिया मामले में वृहद पीठ के निर्णयों के विपरीत है। एस.जी. ने आगे कहा कि तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में भी बी.के. पवित्रा मामले में दिए गए उस कथन (जिसमें कहा गया था कि राज्यपाल के पास राष्ट्रपति के लिए विधेयक आरक्षित करने का विवेकाधिकार है) को गलत तरीके से पर इन्क्यूरियम घोषित किया गया। बीके पवित्रा मामले में समन्वय पीठ द्वारा दिए गए फैसले के साथ विरोधाभास, अनुच्छेद 145(3) के अनुसार, तमिलनाडु के राज्यपाल के मामले को बड़ी पीठ को सौंपने का एक आधार था। उन्होंने आगे कहा कि पुरुषोत्तम नंबूदिरी मामले में पांच जजों की पीठ के फैसले, जिसमें राज्यपाल को किसी विधेयक को मंज़ूरी देने का निर्देश देने से इनकार कर दिया गया, उसको भी तमिलनाडु के राज्यपाल के फैसले में नज़रअंदाज़ कर दिया गया।

एस.जी. ने ज़ोर देकर कहा कि एक संवैधानिक पदाधिकारी दूसरे संवैधानिक पदाधिकारी को यह निर्देश नहीं दे सकता कि उसके कार्यों का निर्वहन कैसे किया जाए। उन्होंने पूछा कि क्या संसद कल यह कानून पारित कर सकती है कि सुप्रीम कोर्ट को 600 पृष्ठों से अधिक के फैसले नहीं लिखने चाहिए। इसी तरह, क्या संसद यह कानून पारित कर सकती है कि यदि मुकदमा एक निश्चित समयावधि में पूरा नहीं होता है तो किसी व्यक्ति को बरी माना जाएगा?

एस.जी. ने यह भी उल्लेख किया कि सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं स्थगन आदेशों को स्वतः रद्द करने संबंधी अपने फैसले को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि संवैधानिक न्यायालयों को निचली अदालतों के लिए समय-सीमा तय करने से बचना चाहिए।

सॉलिसिटर जनरल ने आगे तर्क दिया कि अनुच्छेद 200 या 201 के तहत राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा लिए गए निर्णय न्यायोचित नहीं हैं, क्योंकि ये अनिवार्य रूप से विधायी कार्य हैं।

सॉलिसिटर जनरल ने कहा,

"मेरे विचार से, यह न्यायोचित नहीं है। एक से ज़्यादा फ़ैसले इसका समर्थन करते हैं। सहमति की शक्ति एक विधायी कार्य है और एक समन्वयकारी संवैधानिक अंग के रूप में यह शक्ति न्यायोचित नहीं है।"

उन्होंने आगे कहा कि भारत संवैधानिक सर्वोच्चता की अवधारणा का पालन करता है और संविधान का कोई भी अंग यह दावा नहीं कर सकता कि वह सर्वोच्च है।

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