मानव गरिमा संविधान की आत्मा है: CJI बी.आर. गवई

Update: 2025-09-04 02:20 GMT

भारत के चीफ़ जस्टिस बी.आर. गवई ने आज जोर देकर कहा कि मानवीय गरिमा (Human Dignity) को एक स्थिर विचार की तरह नहीं देखा जा सकता, बल्कि यह एक गतिशील सिद्धांत है, जो संविधान के मूल्यों—स्वतंत्रता, समानता और न्याय—को जोड़ता है। उनका मत था कि गरिमा एक "मानक दृष्टिकोण" (normative lens) है, जिसके माध्यम से अदालतें मौलिक अधिकारों को बेहतर समझ पाती हैं।

दिल्ली में आयोजित 11वीं डॉ. एल.एम. सिंहवी स्मृति व्याख्यान में बोलते हुए, सीजेआई ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा गरिमा को केवल एक नैतिक विचार नहीं बल्कि एक बुनियादी संवैधानिक मूल्य माना है और अपने कई फैसलों में इसे प्रमुख स्थान दिया है।

उन्होंने कहा कि गरिमा और मानवाधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसलों की श्रृंखला यह दर्शाती है कि सर्वोच्च न्यायालय ने गरिमा को न केवल एक स्वतंत्र अधिकार माना है बल्कि एक ऐसा मानक उपकरण (normative tool) भी, जिसके माध्यम से सभी मौलिक अधिकारों को और गहराई से समझा जा सकता है।

सीजेआई ने कहा, "न्यायपालिका ने मानव गरिमा को संविधान की आत्मा बताया है। यह वही सर्वव्यापी सिद्धांत है जो संविधान की आज़ाद भावना और दर्शन को आधार देता है और संविधान की प्रस्तावना में लिखे मूल्यों—स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृत्व और न्याय—को आकार देता है। 20वीं और 21वीं शताब्दी के अनेक फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने लगातार यह माना है कि गरिमा एक स्वतंत्र अधिकार भी है और वह दृष्टिकोण भी, जिसके जरिए मौलिक अधिकारों को समझा जाना चाहिए।"

महत्वपूर्ण रूप से, सीजेआई ने कहा कि गरिमा का इस्तेमाल केवल नागरिकों को सम्मानजनक जीवन देने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक संवैधानिक उपकरण भी है, जो न्यायपालिका को अधिकारों का विस्तार करने, उनकी व्याख्या करने और उन्हें सामंजस्यपूर्ण बनाने में मदद करता है। उन्होंने कहा—“इससे सुनिश्चित होता है कि संविधान द्वारा दी गई सुरक्षा सार्थक और व्यापक हो।”

संवैधानिक दर्शन के "जोड़ने वाले धागे" के रूप में गरिमा की अवधारणा को रखते हुए, सीजेआई ने कहा कि गरिमा एक प्रवाहमान विचार है, जो स्वतंत्रता, समानता और न्याय की धारणाओं में बहती है। इन सभी मूल्यों में गरिमा जीवन की गुणवत्ता और आत्म-सम्मान की मूल शर्त जोड़ती है। उन्होंने समझाया—

"व्यवहार में इसका अर्थ है कि गरिमा एक मार्गदर्शक सिद्धांत की तरह काम करती है, जो अधिकारों को जोड़ती है और न्यायपालिका को संवैधानिक निर्णयों का एक संगत और समग्र ढांचा विकसित करने में मदद करती है। चाहे वह कैदियों, श्रमिकों, महिलाओं या दिव्यांगजनों (PwDs) के संदर्भ में हो—यह स्वायत्तता, समानता और न्याय की समझ को रूपांतरित करती है और सुनिश्चित करती है कि कानून केवल शारीरिक अस्तित्व की रक्षा न करे बल्कि आत्म-सम्मान, स्वतंत्रता और अवसरों से भरे जीवन की भी रक्षा करे।"

अपने भाषण का समापन करते हुए सीजेआई ने ऐतिहासिक के.एस. पुट्टस्वामी केस का हवाला दिया और गरिमा के सार को उद्धृत किया—

"जीना मतलब गरिमा के साथ जीना है। गरिमा ही वह केंद्र है जो सभी मौलिक अधिकारों को एकजुट करती है, क्योंकि मौलिक अधिकार हर व्यक्ति को गरिमा से युक्त अस्तित्व प्रदान करने का प्रयास करते हैं।"

इस अवसर पर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला और सीनियर एडवोकेट डॉ. ए.एम. सिंहवी भी उपस्थित थे।

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