हिंदू उत्तराधिकार | अगर बंटवारे के मुकदमे में अंतिम फैसला पारित करने से पहले कानून में संशोधन हो जाता है तो पक्षकार इसका लाभ ले सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2023-03-31 11:33 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि बंटवारे के मुकदमे के लंबित रहने के दरमियान, जब तक अंतिम डिक्री पारित ना की गई हो पक्षकार संशोधित कानून का लाभ ले सकते हैं। इसी के मुताबिक, यदि पार्टियों के मामलों से संबंधित कानून में संशोधन होता है तो बंटवारे के मुकदमे में शुरुआती डिक्री और अंतिम डिक्री कार्यवाही में अंतर हो सकता है।

जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस जेबी पारदीवाला की खंडपीठ ने कहा कि संयुक्त संपत्ति के बंटवारे के मुकदमे में केवल कुछ पक्षों के बीच सहमति के कारण एक डिक्री टिकाऊ नहीं हो सकती है। समझौते की वैधता के लिए इसमें सभी पक्षों (प्रशांत कुमार साहू और अन्य बनाम चारुलता साहू और अन्य) की लिखित सहमति और हस्ताक्षर दर्ज होने चाहिए।

तथ्य

1969 में श्री कुमार साहू का निधन हो गया। उनके तीन बच्चे- सुश्री चारुलता (पुत्री), सुश्री शांतिलता (पुत्री) और श्री प्रफुल्ल (पुत्र) थे।

तीन दिसंबर 1980 को सुश्री चारुलता ने ट्रायल कोर्ट के समक्ष विभाजन के लिए एक मुकदमा दायर किया, जिसमें उन्होंने मृत पिता श्री साहू की पैतृक संपत्ति के साथ-साथ स्व-अर्जित संपत्तियों में 1/3 हिस्से का दावा किया।

ट्रायल कोर्ट ने 30 दिसंबर 1986 को शुरुआती डिक्री पारित की और कहा कि सुश्री चारुलता और सुश्री शांतिलता पैतृक संपत्तियों में 1/6 हिस्सा और स्वर्गीय कुमार साहू की स्व-अर्जित संपत्तियों में 1/3 हिस्सा पाने की हकदार हैं।

ट्रायल कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि बेटियां मध्यवर्ती मुनाफे (mesne profits) की हकदार हैं। प्रफुल्ल (पुत्र) के संबंध में कोर्ट ने कहा कि वह पैतृक संपत्ति में 4/6 वें हिस्से के हकदार हैं और श्री साहू की स्व-अर्जित संपत्तियों में 1/3 के हिस्सेदार हैं, जिसमें मुख्य मध्यवर्ती लाभ भी शामिल था।

प्रफुल्ल ने हाईकोर्ट के समक्ष पहली अपील दायर की, जिसमें यह तर्क दिया गया कि श्री साहू की सभी संपत्तियां पैतृक संपत्ति हैं। अपील के लंबित रहने के दरमियान सुश्री शांतिलता और श्री प्रफुल्ल ने 28 मार्च 1991 को एक समझौता किया, जिसके तहत सुश्री शांतिलता ने श्री प्रफुल्ल के पक्ष में 50, 000 रुपये के प्रतिफल के बदले अपना हिस्सा छोड़ दिया।

श्री प्रफुल्ल ने हालांकि इस मुद्दे पर हाईकोर्ट के समक्ष मुकदमेबाजी जारी रखी कि क्या कुछ संपत्तियां, जो बंटवारे के मुकदमे की विषय वस्तु थीं, पैतृक थीं या उनके पिता द्वारा स्वयं अर्जित की गई थीं।

एक समानांतर अपील में, सुश्री चारुलता ने अपनी बहन और भाई के बीच हुए सेटलमेंट डीड की वैधता को चुनौती दी।

पांच मई 2011 को हाईकोर्ट की खंडपीठ ने श्री प्रफुल्ल द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया और श्री प्रफुल्ल और सुश्री शांतिलता के बीच हुए समझौता विलेख को अमान्य कर दिया।

श्री प्रफुल्ल ने पांच मई 2011 के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। यह तर्क दिया गया था कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में 2005 में लाए गए संशोधन, जिससे बेटियां को बेटों के बराबर सह-दायित्व दिया गया गया है, को इतने वर्षों बाद लागू नहीं किया जा सकता है। आगे कहा गया कि सुश्री शांतिलता के अधिकार समाप्त हो गए थे और सेटलमेंट डीड के मद्देनजर श्री प्रफुल्ल को हस्तांतरित कर दिए गए ‌थे।

फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा, बंटवारे के मुकदमे के लंबित होने और कोई अंतिम डिक्री पारित नहीं होने के दरमियान, पक्षकार संशोधित कानून का लाभ उठा सकते हैं और ट्रायल कोर्ट से मामले के अनुसार निर्णय लेने का अनुरोध कर सकते हैं।

खंडपीठ ने विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा और अन्य (2020) 9 एससीसी एक में दिए गए फैसले पर भरोसा किया, जिसमें यह माना गया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की संशोधित धारा 6, जिसने नौ सितंबर, 2005 से बेटियों को सहदायिकी अधिकार दिया था, उन मामलों में भी लागू होगा जहां 2005 में संशोधन से पहले पुरुष कोपार्सनर की मृत्यु हो जाती है।

आगे यह भी कहा गया कि बंटवारे के मुकदमे के लंबित होने के दरमियान या शुरुआती डिक्री और अंतिम डिक्री पारित करने के बीच की अवधि में किसी भी विधायी संशोधन या बाद की घटना, जिसके परिणामस्वरूप पार्टियों के हिस्से/अधिकारों में वृद्धि, कमी या परिवर्तन होता है, को अंतिम डिक्री पारित करते समय ध्यान में रखा जा सकता है।

खंडपीठ ने कहा कि अगर ट्रायल कोर्ट ने पिता की संपत्ति को बेटे और बेटियों के बीच समान रूप से ( प्रत्येक का 1/3 हिस्सा) विभाजित किया तो यह 1986 में प्रचलित कानून के अनुरूप नहीं होगा। हालांकि, पिता की संप‌त्तियों में बेटियों को समान हिस्से का आवंटन विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा और अन्य के मद्देनजर अंतिम डिक्री पारित करते समय कानूनी होगा।

बंटवारे के मुकदमे में सेटलमेंट डीड में 'सभी' पार्टियों की लिखित सहमति और हस्ताक्षर शामिल होना चाहिए

कोर्ट ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XXIII नियम 3 के अनुसार, जब मुकदमे में दावा किसी कानूनी समझौते या समझौते द्वारा पूर्ण या आंशिक रूप से समायोजित किया गया है तो समझौता लिखित रूप में होना चाहिए और उस पर सभी पार्टियों के हस्ताक्षर होने चाहिए।

चूंकि सुश्री चारुलता ने अपने भाई-बहनों के बीच सेटलमेंट डीड पर हस्ताक्षर नहीं किए थे, इसलिए समझौता 'सभी' पक्षों की लिखित सहमति के बिना होना गैरकानूनी है। संयुक्त संपत्ति के बंटवारे के मुकदमे में, केवल कुछ पक्षों के बीच सहमति से डिक्री को बनाए नहीं रखा जा सकता है।

बेंच ने ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट द्वारा किए गए हिस्से के आवंटन को सही ठहराया और पार्टियों के शेयरों को फिर से निर्धारित किया। ट्रायल कोर्ट की प्रारंभिक डिक्री को इस हद तक संशोधित किया गया है कि बेटियां स्वर्गीय कुमार साहू की सभी संपत्तियों यानी पैतृक और स्व-अर्जित संपत्तियों में 1/3 हिस्से की हकदार हैं।

सेटलमेंट डीड को अमान्य कर दिया गया है और कहा गया कि श्री प्रफुल्ल सुश्री शांतिलता के हिस्से का दावा नहीं कर सकते हैं।

केस टाइटल: प्रशांत कुमार साहू व अन्य बनाम चारुलता साहू व अन्य।

साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (एससी) 262

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