'मौलिक अधिकार बनाम विधायिका विशेषाधिकार' : सात न्यायाधीशों की बेंच के समक्ष 2005 से लंबित रेफरेंस को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा
सुप्रीम कोर्ट ने [फेसबुक बनाम दिल्ली विधानसभा] मामले में गुरुवार के सुनाये गये अपने फैसले में कहा कि मौलिक अधिकारों और संसदीय विशेषाधिकारों के बीच परस्पर संबंध के बारे में सात न्यायाधीशों की बेंच के समक्ष 2005 से लंबित रिफरेंस (संदर्भ) को कुछ प्राथमिकता दिये जाने की जरूरत है।
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि संविधान के खंड-3 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, चुप्पी और निजता के अधिकार की तुलना में विशेषाधिकार का बड़ा मुद्दा 'एन रवि बनाम विधान सभा' मामले में वृहद पीठ के रेफरेंस के मद्देनजर अब भी छूटा ही हुआ है।
न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की सदस्यता वाली बेंच ने कहा,
"हमें इस दलील का समर्थन करना अपेक्षाकृत कठिन लगता है कि 'एमएसएम शर्मा' मामले में इस कोर्ट के फैसले का प्रभाव बाद के न्यायिक फैसलों के कारण कम होता गया है या 'एन रवि' मामले में बड़ी पीठ के समक्ष लंबित रेफरेंस के मद्देनजर संविधान के अनुच्छेद 105(3) और 194 (3) के तहत प्रदत्त शक्तियों, विशेषाधिकारों और प्रतिरोधक अधिकारों की तुलना में संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार को और अधिक तरजीह दी जानी चाहिए।"
एन. रवि रेफरेंस
दिसम्बर 2004 में, संविधान पीठ ने 'एमएसएम शर्मा बनाम डॉ. श्रीकृष्ण सिन्हा' और '1964 के विशेष रेफरेंस संख्या 1' के बीच टकराव के मद्देनजर 'एन रवि' मामले को रेफर कर दिया था। 'एन रवि' मामले में यह दलील दी गयी थी कि यद्यपि 1964 के विशेष रेफरेंस संख्या 1 में कोर्ट ने 'एमएसएम शर्मा' मामले में दिये गये बहुमत के फैसले से सहमति जतायी थी, लेकिन कुछ टिप्पणियां ऐसी हैं जो उक्त फैसले में निर्धारित किये गये कानून के विपरीत हैं। इसलिए बेंच ने इस मामले को सात सदस्यीय बेंच के समक्ष रेफर कर दिया था। पत्रकार एन रवि और अन्य ने विशेषाधिकार हनन और अवमानना के आरोपों के मद्देनजर पत्रकारों की गिरफ्तारी के तमिलनाडु विधानसभा के आदेश के बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
एमएसएम शर्मा
बिहार विधानसभा के सचिव ने पटना से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक 'सर्चलाइट' के सम्पादक पंडित एम एस एम शर्मा को विधानसभा की विशेषाधिकार समिति के समक्ष कारण बताने के लिए तलब किया था कि एक सदस्य के भाषण का कुछ अंश अध्यक्ष द्वारा हटा दिये जाने के बावजूद भाषण को पूरा प्रकाशित करके अध्यक्ष एवं विधानसभा के विशेषाधिकार के उल्लंघन के लिए उनके खिलाफ उचित कार्रवाई क्यों न की जाये? इस नोटिस को सुप्रीम कोर्ट में यह कहते हुए चुनौती दी गयी थी कि यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निजी स्वतंत्रता संरक्षित करने के अधिकार का उल्लंघन है और एक समाचार पत्र के सम्पादक के रूप में प्रेस की आजादी के सभी लाभों का वह हकदार हैं।
पांच सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा विचार किया गया मुद्दा था कि क्या संविधान के तहत प्रदत्त विधान मंडल के विशेषाधिकार अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत प्राप्त मौलिक अधिकार से अधिक महत्वपूर्ण है? संविधान पीठ ने (बहुमत के आधार पर) व्यवस्था दी थी कि अनुच्छेद 19(एक)(ए) के तहत बोलने एवं अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार को अनुच्छेद 194 के अधीन होना चाहिए।
कोर्ट ने कहा था,
"यह तर्क देना सही नहीं होगा कि संविधान का अनुच्छेद 19(1)(ए) संविधान के अनुच्छेद 194(3) के उत्तरार्द्ध या संविधान के अनुच्छेद 105(3) को नियंत्रित करता है और उनके अनुसार प्रदत्त शक्तियां, विशेषाधिकार और प्रतिरोधक अधिकार अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत नागरिकों के मौलिक अधिकार के अधीन होने चाहिए। चूंकि अनुच्छेद 194(3) और 105(3) संविधान के खंड तीन के प्रावधानों के तरह ही सर्वोच्च स्थान पर हैं और अनुच्छेद 13 द्वारा प्रभावित नहीं हो सकते, इसलिए सौहार्दपूर्ण संरचना के सिद्धांत को अपनाया जाना चाहिए। इसलिए इसका आशय है, अनुच्छेद 19(1)(ए) के प्रावधान, जो सामान्य हैं, अनुच्छेद 194(एक) और इसके उत्तरार्द्ध में वर्णित उपबंध (तीन), जो विशेष है, के अधीन होना चाहिए तथा अनुच्छेद 19(1)(ए) याचिकाकर्ता के लिए किसी काम का नहीं है।"
1964 का स्पेशल रेफरेंस संख्या 1
इस मामले में उत्तर प्रदेश विधानसभा ने नरसिंह नारायण पाण्डेय नामक एक सदस्य के विशेषाधिकार के हनन के लिए केशव सिंह नामक व्यक्ति को सात दिन की हिरासत में जेल भेजने की सजा सुनायी थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उसके बाद उसे जमानत पर रिहा कर दिया था। विधानसभा ने उसके बाद दोनों संबंधित न्यायाधीशों को सदन के समक्ष कस्टडी में पेश किये जाने का प्रस्ताव पारित किया था। सुप्रीम कोर्ट की उस वक्त की 28 जजों की फुल बेंच उक्त प्रस्ताव के खिलाफ दोनों जजों की अपील पर विचार करने के लिए इकट्ठा हुई थी। बेंच ने विधानसभा अध्यक्ष को जजों के खिलाफ वारंट जारी करने तथा मार्शल को वारंट तामील कराने पर रोक लगा दी थी। इस टकराव को समाप्त करने के लिए भारत के राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143(एक) के तहत इस कोर्ट के समक्ष रेफरेंस रखने के अधिकार के इस्तेमाल का निर्णय लिया था। राष्ट्रपति का रेफरेंस हाईकोर्ट एवं इसके जजों द्वारा अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए प्रदत्त शक्तियों के परिप्रेक्ष्य में राज्य विधानमंडल को प्रदत्त शक्तियों, विशेषाधिकारों और प्रतिरोधक अधिकारों से जुड़ा था।
कोर्ट ने अपने उस फैसले में कहा था,
"हमने पहले ही कहा है कि बहुमत के फैसले ने अनुच्छेद 194(3) के पहले अंश से अधिकृत शक्तियों, विशेषाधिकारों तथा प्रतिरोधक अधिकारों के संबंध में राज्य विधानमंडल द्वारा दी गयी दलीलों को मंजूर कर लिया है, यह अनुच्छेद 13 के अधीन होगा। श्री सिरवाई ने इस निष्कर्ष की सत्यता को चुनौती देने का प्रयास किया है। उनकी दलील है कि विधानमंडलों को संविधान के अनुच्छेद 194(3) के पहले अंश द्वारा प्रदत्त शक्तियां संवैधानिक शक्तियां है और इसलिए, यदि कोई कानून इस शक्तियों का इस्तेमाल करके पारित किया जाता है तो यह अनुच्छेद 13 (न्यायिक समीक्षा) के दायरे से बाहर होगा। हम इस तर्क को मानने में अक्षम हैं। यह सही है कि विधान मंडलों को इस प्रकार का कानून बनाने की शक्तियां अनुच्छेद 194(3) के पहले हिस्से के तौर पर दी गयी हैं, लेकिन जब राज्य विधानमंडल इस शक्ति के इस्तेमाल की इच्छा रखता है, तो उन्हें निस्संदेह संविधान की दूसरी अनुसूची की प्रविष्टि संख्या 39 के साथ पठित अनुच्छेद 246 के तहत कार्य करना चाहिए। इस तरह के कानून का क्रियान्वयन संवैधानिक अधिकार के इस्तेमाल के दायरे में नहीं कहा जा सकता और इसलिए, इस तरह के कानून को अनुच्छेद 13 के दायरे वाले कानून के तौर पर लिया जाना चाहिए। यह मंतव्य पंडित शर्मा [1959 एसयूपीपी 1 एस सी आर, 806] के मामले में बहुमत के फैसले में दिया गया था और हम इस मंतव्य से सम्मान पूर्वक सहमति व्यक्त करते हैं।"
केस : अजित मोहन बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली विधानसभा [रिट याचिका संख्या 1088/2020]
कोरम : न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय
साइटेशन : एलएल 2021 एससी 288