शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन का मौलिक अधिकार लोकतंत्र की बुनियादी विशेषताः कर्नाटक हाईकोर्ट
कर्नाटक हाईकोर्ट ने दिसंबर 2019 में सीएए विरोधी प्रदर्शनों के मद्देनजर बेंगलुरु में लगाई गई धारा 144 को अवैध मानते हुए कहा है कि शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन का मौलिक अधिकार लोकतंत्र की बुनियादी विशेषता है।
चीफ जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस हेमंत चंदनगौदर की खंडपीठ ने कहा, "शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करने के मौलिक अधिकार के उल्लंघन को, जो लोकतंत्र की एक बुनियादी विशेषता है, रिट कोर्ट हल्के में नहीं ले सकती है।"
कोर्ट ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत दिए गए निषेधात्मक आदेश की वैधता का परीक्षण "मात्र तकनीकी" मामला नहीं है, बल्कि "महत्वपूर्ण" है। ऐसे आदेश में अनुच्छेद 19 (1) (ए) और 19 (1) (बी) के तहत प्रदत्त शांतिपूर्ण सभा, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के हनन होने को सवाल शामिल है।
उल्लेखनीय है कि कोर्ट ने ये फैसला 13 फरवरी को सुनाया था, लेकिन हालांकि फैसले की विस्तृत प्रति कल तक जारी नहीं की गई थी।
कोर्ट के सामने 18 दिसंबर, 2019 को पुलिस आयोग, बेंगलुरु की ओर से पारित आदेशों और विरोध प्रदर्शनों पर रोक लगाने की वैधता का सवाल था। कोर्ट कांग्रेस विधायक सौम्या रेड्डी, राज्यसभा सांसद राजीव गौड़ा, लियो सल्धाना और कविता लंकेश आदि की याचिका पर विचार कर रहा था।
कोर्ट ने कहा कि कानून और व्यवस्था के तत्कातिक खतरे को कम करने के लिए प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता के बारे में पुलिस आयुक्त (जिला मजिस्ट्रेट की शक्तियों का उपयोग करके) की और से दिया गया आदेश व्यक्तिपरक संतुष्टि को प्रतिबिंबित नहीं करता है।
"आदेश का अध्ययन यह दर्शाता है कि यह केवल पुलिस उपायुक्तों की ओर से पेश रिपोर्टों को दोबारा पेश किया गया है। इस बात के दूर-दूर तक संकेत नहीं है कि जिला मजिस्ट्रेट ने कोई जांच भी की थी।"
राज्य सरकार का रुख था कि उपायुक्तों की रिपोर्टों के आलोक में कोई जांच आवश्यक नहीं थी। हालांकि कोर्ट ने इस दलील को स्वीकार नहीं किया।
कश्मीर लॉकडाउन से जुड़े अनुराधा भसीन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले का हवाला देते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि जांच पर जिला मजिस्ट्रेट की राय आवश्यक थी।
न्यायालय ने यह भी ध्यान दिया कि कुछ उपायुक्तों ने निषेधाज्ञा की तारीख के दिन विरोध प्रदर्शन की अनुमति पहले ही दे दी थी। जबकि उन्होंने आयुक्त को सौंपी रिपोर्टों में यह खुलासा नहीं किया था।
".. रिपोर्ट्स में पुलिस उपायुक्तों ने जो बताया है, उन्हें स्थापित करने के लिए आदेश के कोई भी तथ्य नहीं दिए गए हैं। आदेश में तार्किकता का अभाव है।"
महाधिवक्ता ने कहा कि पुलिस महानिदेशक के निर्देश धारा 144 का आदेश लागू किया गया था। कोर्ट ने आदेश में ऐसे किसी निर्देश का कोई जिक्र नहीं है। न्यायालय ने यह भी कहा कि वरिष्ठ अधिकारी की राय धारा 144 लागू करने का आधार नहीं हो सकती।
कोर्ट के आदेश में, जिसे चीफ जस्टिस ओका ने लिखा थ, कहा गया-
"जब पुलिस आयुक्त उक्त कोड की धारा 144 की उप-धारा (1) के तहत प्राप्त शक्ति का उपयोग करता है, तो वह एक पुलिस अधिकारी के रूप में कार्य नहीं करता है, बल्कि जिला मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य करता है और इसलिए, वह केवल पुलिस अधिकारी की राय पर भरोसा नहीं कर सकता है, जो संभवतः उसका सीनियर भी हो सकता है। धारा 144 का आदेश पारित करते समय एक पुलिस अधिकारी अपने सीनियर अधिकारी की राय से प्रभावित नहीं हो सकता है।"
कोर्ट ने आगे कहा-
"उक्त संहिता की धारा 144 की उप-धारा (1) के तहत जारी आदेश नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन करता है, इसलिए जिला मजिस्ट्रेट की व्यक्तिपरक संतुष्टि और उक्त संहिता की धारा 144 की उप-धारा (1) की आवश्यकतानुसार राय का गठन शक्ति के प्रयोग की पूर्ववर्ती
शर्त है। इसलिए कम से कम संक्षिप्त कारणों को दर्ज करना आवश्यक है।"
कोर्ट ने कहा "दुर्भाग्य से, वर्तमान मामले में, ऐसे नहीं लगता कि जिला मजिस्ट्रेट ने अपने समझ का प्रयोग किया था।"
कोर्ट ने आदेश को अवैध घोषित किया, हालांकि इसे रद्द करने का औपचारिक आदेश पारित नहीं किया।
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