Bihar SIR| सुप्रीम कोर्ट का याचिकाकर्ताओं के सवाल, 'क्या ECI के पास विशेष गहन पुनरीक्षण का अधिकार नहीं है?'

Update: 2025-08-13 12:18 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (13 अगस्त) को बिहार की मतदाता सूचियों के चुनाव आयोग द्वारा किए गए विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं से पूछा कि क्या चुनाव आयोग के पास इस तरह की प्रक्रिया को उचित तरीके से करने का अधिकार नहीं है?

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 21(3) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि "चुनाव आयोग किसी भी समय, दर्ज किए जाने वाले कारणों से किसी भी निर्वाचन क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण का निर्देश उस तरीके से दे सकता है जैसा वह उचित समझे।"

खंडपीठ ने पूछा कि जब अधीनस्थ नियमों में विशेष पुनरीक्षण करने के तरीके का उल्लेख नहीं है तो क्या चुनाव आयोग को अपनी प्रक्रिया निर्धारित करने का विवेकाधिकार नहीं होगा?

जस्टिस बागची ने पूछा,

"जब प्राथमिक विधान 'जैसा समझा जाए वैसा' कहता है, लेकिन अधीनस्थ विधान ऐसा नहीं कहता..., तो क्या इससे निर्वाचन आयोग को नियमों की पूरी तरह अनदेखी न करते हुए बल्कि विशेष संशोधन की विशिष्ट आवश्यकता से निपटने के लिए नियमों में निर्धारित प्रक्रिया से कुछ और अतिरिक्त संशोधन करने का अवशिष्ट विवेकाधिकार मिल जाएगा?"

खंडपीठ का यह प्रश्न एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की ओर से सीनियर एडवोकेट गोपाल शंकरनारायणन की इस दलील के जवाब में आया कि निर्वाचन आयोग को "विशेष गहन संशोधन" करने का अधिकार नहीं दिया गया।

उन्होंने कहा,

"हम सिर्फ़ प्रक्रिया को चुनौती नहीं दे रहे हैं। हम शुरुआत से ही चुनौती दे रहे हैं। वे ऐसा कभी नहीं कर सकते! ऐसा कभी नहीं हुआ। इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है। अगर ऐसा होने दिया गया, तो भगवान ही जाने इसका अंत कहां होगा।"

जस्टिस कांत ने कहा कि अगर इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाता है तो धारा 21(3) निरर्थक हो जाएगी।

उन्होंने कहा,

"अगर ऐसा कभी नहीं किया जा सकता है तो उप-धारा (3) निरर्थक हो जाएगी।"

शंकरनारायणन ने तब दलील दी कि धारा 21(3) केवल "किसी निर्वाचन क्षेत्र" या "निर्वाचन क्षेत्र के किसी भाग" के लिए मतदाता सूची में संशोधन की अनुमति देती है, न कि पूरे राज्य की मतदाता सूची को हटाकर नई मतदाता सूची शामिल करने की।

जस्टिस बागची ने पूछा कि यदि ऐसा है तो बिहार की प्रक्रिया को धारा 21(3) के तहत राज्य के सभी निर्वाचन क्षेत्रों के लिए एक ही समय में की जा रही प्रक्रिया के रूप में क्यों नहीं देखा जा सकता?

जस्टिस बागची ने कहा कि चुनाव आयोग की अवशिष्ट शक्तियां संविधान के अनुच्छेद 324 से भी प्राप्त होती हैं। जस्टिस बागची ने आगे कहा कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संक्षिप्त संशोधन और विशेष संशोधन दोनों का उल्लेख है और चुनाव आयोग ने केवल "गहन" शब्द जोड़ा है।

शंकरनारायणन ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 326 के अनुसार, मतदाता के रूप में पंजीकृत होना भारत के प्रत्येक वयस्क नागरिक का संवैधानिक अधिकार है।

इस अवसर पर जस्टिस बागची ने टिप्पणी की कि चुनाव आयोग अनुच्छेद 324 पर ज़ोर देगा, जो उसे चुनाव कराने और मतदाता सूची तैयार करने के लिए पूर्ण शक्तियां प्रदान करता है।

जस्टिस बागची ने टिप्पणी की,

"यह संवैधानिक अधिकार और संवैधानिक शक्ति के बीच की लड़ाई है।"

सीनियर एडवोकेट ने तर्क दिया कि मतदाता सूची में पहले से शामिल व्यक्ति के मतदान के अधिकार को हल्के में नहीं छीना जा सकता। चुनाव आयोग यह मानकर शुरुआत नहीं कर सकता कि मतदाता सूची में शामिल व्यक्ति नागरिक नहीं हैं। लाल बाबू हुसैन मामले में दिए गए फैसले का हवाला देते हुए उन्होंने तर्क दिया कि यह दर्शाने की ज़िम्मेदारी चुनाव आयोग की कि वे नागरिक क्यों नहीं हैं। उन्होंने अनूप बरनवाल मामले में संविधान पीठ के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि मतदान का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है।

उन्होंने यह भी तर्क दिया कि चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के 10 जुलाई के आदेश की अवहेलना की है, जिसमें उन्हें आधार, राशन और EPIC पर विचार करने का निर्देश दिया गया था। शंकरनारायणन ने चुनाव आयोग द्वारा जारी SIR अधिसूचना पर रोक लगाने की मांग की।

वकील प्रशांत भूषण ने सवाल उठाया कि चुनाव आयोग ने अपनी वेबसाइट से मसौदा सूची का खोज योग्य संस्करण क्यों हटा दिया। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग ने मतदाता सूची में हेराफेरी का आरोप लगाते हुए राहुल गांधी की प्रेस कॉन्फ्रेंस के अगले ही दिन ऐसा किया। उन्होंने यह भी मांग की कि चुनाव आयोग उन 65 लाख मतदाताओं की सूची प्रकाशित करे, जिन्हें सूची से बाहर रखा गया। साथ ही इस छूट के कारण भी बताए।

भूषण ने कहा,

"उनका कहना है कि उनके पास नाम हटाने के सटीक कारण हैं - उन्हें वेबसाइट पर क्यों नहीं होना चाहिए? यह दुर्भावनापूर्ण इरादे को दर्शाता है।"

उन्होंने चुनाव आयोग को मसौदा सूची से बाहर रखे गए लोगों के नाम प्रकाशित करने, वेबसाइट पर मसौदा सूची को खोज योग्य बनाने, बीएलओ द्वारा अनुशंसित/अनुशंसित नहीं किए गए लोगों के नाम और नाम हटाने के कारण बताने का अंतरिम निर्देश देने की मांग की।

इससे पहले, सीनियर एडवोकेट डॉ. ए.एम. सिंघवी ने कल की अपनी दलीलें जारी रखते हुए तर्क दिया कि चुनाव आयोग द्वारा SIR के लिए स्वीकार्य बताए गए 11 दस्तावेज़ बिहार की जनता में बहुत कम शामिल हैं। उन्होंने आधार, मतदाता पहचान पत्र, राशन कार्ड, पानी और गैस कनेक्शन के बिल आदि को सूची से बाहर रखने पर सवाल उठाया।

सिंघवी ने विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले SIR के समय पर भी सवाल उठाया।

सिंघवी ने कहा,

"SIR पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन चुनाव से कुछ महीने पहले क्यों? इसे बाद में करवाएं, पूरा एक साल..."

उन्होंने चुनाव आयोग की 2004 की एक अधिसूचना का हवाला दिया, जिसमें महाराष्ट्र और अरुणाचल प्रदेश को विधानसभा चुनाव नजदीक होने के कारण मतदाता सूची संशोधन से छूट दी गई। उन्होंने पूछा कि चुनाव आयोग अपने ही उदाहरण का पालन क्यों नहीं कर रहा है?

खंडपीठ ने अंत में सीनियर एडवोकेट शादान फरासत, कल्याण बनर्जी और पीसी सेन की भी संक्षिप्त सुनवाई की। न्यायालय कल यानी गुरुवार को चुनाव आयोग की दलीलें सुनेगा।

गौरतलब है कि मंगलवार को खंडपीठ ने याचिकाकर्ताओं की ओर से सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल (राजद सांसद मनोज कुमार झा की ओर से), सीनियर एडवोकेट डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी, एडवोकेट प्रशांत भूषण, एडवोकेट वृंदा ग्रोवर और राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव द्वारा प्रस्तुत दलीलें सुनीं।

Case Title: ASSOCIATION FOR DEMOCRATIC REFORMS AND ORS. Versus ELECTION COMMISSION OF INDIA, W.P.(C) No. 640/2025 (and connected cases)

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