योग्य उम्मीदवारों के लिए पर्याप्त सरकारी नौकरियां नहीं पैदा न होने पर सुप्रीम कोर्ट ने जताई नाराजगी

Update: 2025-04-05 04:42 GMT
योग्य उम्मीदवारों के लिए पर्याप्त सरकारी नौकरियां नहीं पैदा न होने पर सुप्रीम कोर्ट ने जताई नाराजगी

सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी नौकरियों की कमी और सीमित अवसरों के कारण योग्य उम्मीदवारों को रोजगार नहीं मिलने की कठिनाइयों को उजागर किया।

कोर्ट ने टिप्पणी की,

“आजादी के 80 (अस्सी) साल पूरे होने को हैं, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में पर्याप्त नौकरियां पैदा करना, जो सार्वजनिक सेवा में प्रवेश करने के इच्छुक लोगों को आकर्षित कर सकें, एक मायावी लक्ष्य बना हुआ है। जबकि देश में कतार में प्रतीक्षारत योग्य उम्मीदवारों की कोई कमी नहीं है, लेकिन पर्याप्त रोजगार अवसरों की कमी के कारण सार्वजनिक रोजगार की तलाश विफल हो जाती है।”

यह टिप्पणी जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन की खंडपीठ ने पटना हाईकोर्ट का फैसला बरकरार रखते हुए की, जिसमें राज्य सरकार के उस नियम को असंवैधानिक करार दिया गया था, जिसमें चौकीदार के पद पर वंशानुगत सार्वजनिक नियुक्तियों की अनुमति दी गई थी।

बिहार चौकीदारी संवर्ग (संशोधन) नियम, 2014 के नियम 5(7) के प्रावधान (ए) के तहत रिटायर चौकीदार को अपने स्थान पर नियुक्ति के लिए आश्रित रिश्तेदारों को नामित करने की अनुमति दी गई।

पटना हाईकोर्ट की खंडपीठ ने प्रावधान को कोई औपचारिक चुनौती न दिए जाने के बावजूद संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) और 16 (सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर) का उल्लंघन बताते हुए इसे खारिज कर दिया।

हाईकोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्ता-बिहार राज्य दफादार चौकीदार पंचायत (मगध प्रमंडल) जो मूल रूप से पक्षकार नहीं है, ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने नियम को असंवैधानिक घोषित करने के अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है, जबकि न्यायालय के समक्ष वंशानुगत नियम की संवैधानिकता को चुनौती नहीं दी गई।

मुद्दा

न्यायालय के विचारार्थ यह प्रश्न आया कि क्या हाईकोर्ट द्वारा स्वप्रेरणा से अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए आनुवंशिकता नियम को असंवैधानिक घोषित करना उचित है, भले ही इसके विरुद्ध कोई औपचारिक चुनौती नहीं दी गई।

निर्णय

हाईकोर्ट के निर्णय की पुष्टि करते हुए जस्टिस दत्ता द्वारा लिखित निर्णय ने अपीलकर्ता का तर्क खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया कि हाईकोर्ट ने उस नियम को चुनौती देने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया, जिसकी संवैधानिकता पर न्यायालय के समक्ष प्रश्न नहीं उठाया गया।

न्यायालय ने माना कि खंडपीठ द्वारा आनुवंशिकता नियम को निरस्त करना उचित है, भले ही इसे औपचारिक रूप से चुनौती नहीं दी गई, क्योंकि अपीलकर्ताओं से यह अपेक्षा करना अनुचित होता कि वे उसी नियम को चुनौती दें, जिस पर राहत के लिए उनका दावा आधारित है।

अदालत ने टिप्पणी की,

“प्रतिवादी नंबर 7 आपत्तिजनक प्रावधान पर भरोसा करते हुए हाईकोर्ट से राहत मांग रहा था। ऐसे मामले में जहां पीड़ित पक्ष किसी नियम के प्रावधान को लागू करने की मांग करता है, जो असंवैधानिक प्रतीत होता है, क्या वह इसकी असंवैधानिकता की दलील देगा? ऐसा करना उसके लिए अविवेकपूर्ण होगा। इसलिए इसका उत्तर नकारात्मक ही हो सकता है। प्रतिवादी नंबर 7 की दलील पर विचार करते हुए खंडपीठ ने आपत्तिजनक प्रावधान को इतना असंवैधानिक पाया कि इसके लिए कोई विशेष चुनौती न होने के बावजूद, इसने इसे शून्य घोषित कर दिया। हालांकि खंडपीठ के पास हमारे द्वारा ऊपर संदर्भित निर्णयों का उल्लेख करने का कोई अवसर नहीं था, लेकिन इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। खंडपीठ को इस विषय पर कानून के बारे में पता होना चाहिए कि नियुक्ति को वंशानुगत अधिकार के रूप में दावा नहीं किया जा सकता। इसलिए आपत्तिजनक प्रावधान को चुनौती दिए बिना ही इसे रद्द करने के बारे में सोचा। हमें इस तरह के दृष्टिकोण में कोई अवैधता नहीं दिखती।”

असंवैधानिक अधीनस्थ विधान को निरस्त करना तथा न्यायालय से संपर्क न करने वाले व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करना रिट न्यायालय का कर्तव्य है।

इसके अलावा, न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट द्वारा स्वप्रेरणा से प्राप्त शक्तियों का प्रयोग बरकरार रखा, जिसके तहत अधीनस्थ विधान को असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है, यदि वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। तर्क दिया कि "देश में रिट न्यायालयों का कर्तव्य केवल उन व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों को लागू करना ही नहीं है, जो उनके पास आते हैं, बल्कि रिट न्यायालयों का यह भी कर्तव्य है कि वे राज्य के तीनों अंगों द्वारा दूसरों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से रक्षा करें।"

अदालत ने टिप्पणी की,

"हमारा मानना ​​है कि जब कोई रिट न्यायालय किसी दुर्लभ और बहुत ही असाधारण मामले में अपने विवेक को उस मुद्दे से जुड़े अधीनस्थ कानून की स्पष्ट असंवैधानिकता से आहत पाता है तो वह राज्य को अधीनस्थ कानून का बचाव करने का पूरा अवसर प्रदान करने और उसे सुनने के बाद ऐसे कानून की असंवैधानिकता और/या अमान्यता के बारे में घोषणा कर सकता है। आखिरकार, चौकस प्रहरी के रूप में देश में रिट न्यायालयों का न केवल उन व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों को लागू करना कर्तव्य है, जो उनके पास आते हैं, बल्कि राज्य के तीनों अंगों द्वारा दूसरों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से सुरक्षा करना भी रिट न्यायालयों का समान रूप से कर्तव्य है। यह शक्ति सभी संवैधानिक न्यायालयों में निहित पूर्ण शक्ति है। यदि किसी मामले में यह पाया जाता है कि अधीनस्थ कानून के संचालन के परिणामस्वरूप मौलिक अधिकार का गंभीर उल्लंघन हुआ है। इस न्यायालय के बाध्यकारी निर्णय द्वारा मुद्दा समाप्त हो जाता है तो हम रिट न्यायालयों का यह कर्तव्य मानते हैं कि वे न्याय प्रदान करें। अधीनस्थ कानून को शून्य घोषित करना, जिससे उन लोगों के अधिकारों की रक्षा की जा सके, जो इससे अभी तक प्रभावित नहीं हुए हैं। हम दोहराते हैं, ऐसा केवल विरले ही किया जा सकता है और ऐसे मामलों में जो सामान्य से अलग हों।”

इस संबंध में मंजीत बनाम भारत संघ, (2021) 14 एससीसी 48 और मुख्य कार्मिक अधिकारी, दक्षिणी रेलवे बनाम ए. निशांत जॉर्ज, (2022) 11 एससीसी 678 के हालिया मामलों का संदर्भ दिया गया, जहां अदालत ने रिटायर कर्मचारियों के बच्चों को नौकरी पाने की अनुमति देने वाली रेलवे योजना रद्द कर दी, इसे "पिछले दरवाजे से प्रवेश" और संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन करार दिया।

उपर्युक्त को देखते हुए अदालत ने हाईकोर्ट द्वारा पारित सुविचारित निर्णय में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए अपील खारिज कर दी।

केस टाइटल: बिहार राज्य दफादार चौकीदार पंचायत (मगध डिवीजन) बनाम बिहार राज्य और अन्य

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