जमानत, रिमांड और जांच के दौरान बचाव पक्ष की रणनीतियांः सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन के सुझाव
लाइवलॉ की ओर से आयोजित वेबिनार, जिसका विषय था-आपराधिक मामले में बचाव पक्ष के वकील की रणनीतियां, में सीनियर एडवाकेट रेबेका जॉन ने एक शिक्षाप्रद और ज्ञानवर्धक सत्र में विभिन्न महत्वपूर्ण रणनीतियों पर चर्चा की, जिनका एक प्रभावी क्रिमिनल ट्रायल के लिए बचाव पक्ष के वकील प्रयोग कर सकते हैं। उल्लेखनीय है कि जॉन अरुशी तलवार, हाशिमपुरा, 2 जी ट्रायल जैसे मामलों में शामिल रही हैं।
सत्र के अंश:
जमानत अर्ज़ी दायर करने का उचित समय
रेबेका जॉन ने कहा कि जमानत अर्जी दायर करने का उचित समय क्या हो, इस प्रश्न का "कोई वास्तविक, स्पष्ट उत्तर नहीं" है। उन्होंने कहा, "जब व्यक्ति पुलिस हिरासत में है, तब मैं जमानत अर्जी दायर करने में संकोच करूंगी। पुलिस हिरासत खत्म होने तक या व्यक्ति को न्यायिक हिरासत में भेजे जाने तक इंतजार करना पसंद करूंगी।"
जॉन ने जांच के शुरुआती चरणों को "बिल्ली और चूहे के खेल" जैसा बताया। उन्होंने कहा कि जब अभियुक्त के खिलाफ साक्ष्य तेजी से आने आ रहे हों तो स्थितियों को सामान्य होने तक इंतजार करना उचित होगा। उन्होंने कहा कि यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।
जॉन ने बताया कि पहले प्रामरी कोर्ट में अर्ज़ी दायर कर यह पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए कि जांच एजेंसी ने आरोपी के खिलाफ मामले में कितनी प्रगति की है। एक बार जांच की प्रगति का अंदाजा लगा लेने के बाद उच्चतर न्यायालयों में अर्जी दायर करें। उन्होंने कहा कि अगर यह भरोसा हो कि अर्ज़ी खारिज कर दी जाएगी तो उच्चतर न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाना ठीक नहीं है।
जमानत पर प्रतिपक्ष से कैसे भिड़ें
जॉन ने कहा कि जमानत के खिलाफ क्या आधार हो सकते हैं, इससे निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए। विरोध के कई मानक बिंदु हो सकते हैं, जैसे, आवेदक अन्य मामलों में अभियुक्त है, सबूतों से छेड़छाड़ की संभावना है, अभियुक्त जांच में सहयोग नहीं कर रहा है आदि। जॉन ने कहा कि अन्य आपराधिक मामलों का लंबित होना जमानत से इनकार करने का आधार नहीं है।
इस संबंध में, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया फैसले, प्रभाकर तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि अपराध की गंभीरता और अन्य मामलों का लंबित होना जमानत से इनकार करने का पर्याप्त कारक नहीं हैं। उन्होंने कहा कि अभियोजन पक्ष का अक्सर तर्क होता है कि जमानत देने से समाज में गलत संदेश जाएगा। यह भी अरक्षणीय तर्क है। हाल ही में, दिल्ली हाईकोर्ट ने एक फैसले में कहा कि ऐसे आधार पर जमानत से इनकार नहीं किया जा सकता है।
जस्टिस अनूप जे भंभानी के फिरोज खान बनाम राज्य में दिए फैसले का हवाला देते हुए, उन्होंने कहा, "अदालत को, समाज को संदेश देने के लिए नहीं, कानून के अनुसार न्याय करने के लिए छोड़ दें।" अभियोजन पक्ष द्वारा उठाया गया एक और आधार यह हो सकता है कि अभियुक्त जांच में सहयोग नहीं कर रहा है।
उन्होंने कहा कि यह कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण तर्क है। यह याद रखना चाहिए कि अभियुक्त को चुप रहने का अधिकार है, और अभियोग से खुद को बचाने का अधिकार है, जिसे संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के तहत संरक्षित किया गया है। जॉन ने कहा कि यह आरोपी का अधिकार है कि वह ट्रायल में अपना बचाव करे, जांच में साक्ष्य पेश करने के लिए वह बाध्य नहीं है।
इस संदर्भ में, जॉन ने नवेंदु बब्बर बनाम स्टेट ऑफ एनसीटी ऑफ दिल्ली में दिल्ली हाईकोर्ट के एक हालिया फैसले का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि जांच में असहयोग करना जमानत खारिज करने का आधार नहीं हो सकता है। कोर्ट ने उस मामले में कहा था कि जांच अधिकारी को यह कहते नहीं सुना जा सकता है कि जब तक आरोपी, उन सभी सबूतों की जानकारी साझा नहीं करता, जिनकी मौजूदगी की आशंका जांच अधिकारी को है, आरोपी को हिरासत में रखा जाना चाहिए।
जॉन ने कहा कि गोल्डल रूल यह है कि जमानत नियम है, और जेल अपवाद। अशोक सागर बनाम राज्य में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले का उल्लेख करते हुए, उन्होंने कहा कि अपराध की गंभीरता भी जमानत को अस्वीकार करने का कारक नहीं है।
परिस्थितियों का परिवर्तन
एक जमानत अर्जी की अस्वीकृति, दूसरी जमानत अर्जी दायर करने पर रोक नहीं लगाती, यदि परिस्थितियों में बदलाव होता है। जमानत के मसले में कानून का एक अलिखित सिद्धांत यह है कि परिस्थिति में बदलाव बाद की जमानत अर्जी पर विचार करने का आधार है। यहां तक कि अगर जमानत अर्जी को जांच के चरण में खारिज कर दिया जाता है, तो भी यह मामले का अंत नहीं है। चार्जशीट दाखिल करना परिस्थिति में बदलाव है।
अंतिम रिपोर्ट दाखिल होने के बाद, अदालतें सबूतों की जांच करेंगी और जमानत याचिका पर नए सिरे से विचार करेंगी। उस स्तर पर, अभियुक्त के खिलाफ मामला स्पष्ट हो चुका होता है। सबूत और गवाहों के बयान सुरक्षित हो चुके होतें हैं।
2 जी केस (संजय चंद्रा बनाम सीबीआई) में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक बार चार्जशीट दायर होने के बाद, अभियुक्त लाभ ले सकता है, और जमानत दी जानी चाहिए, क्योंकि जांच खत्म हो गई है और अभियुक्त की ट्रायल को छोड़कर किसी अन्य उद्देश्य के लिए जरूरत नहीं है। इसलिए, चार्जशीट दाखिल होने के बाद, जमानत अर्जी के लिए नए सिरे से प्रयास किया जा सकता है।
रिमांड के दरमियान रणनीति
जॉन ने कहा कि यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिस पर क्रिमिनल लॉयर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं। उन्होंने कहा कि रिमांड के दरमियान कई रणनीतियों का इस्तेमाल किया जा सकता है। पुलिस की ओर से दायर प्रत्येक रिमांड अर्जी का, जहां तक संभव हो, लिखित विरोध किया जाना चाहिए। जब आप रिमांड का विरोध करते हैं और वह मंजूर नहीं होती है तो, नतीजतन, आरोपी को जमानत पर रिहा कर दिया जाता है।
आपको इस दौरान अभियुक्त से बातचीत करनी चाहिए। यदि आरोपी कहता है कि उसे दबाव देकर दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया है, या कि जबरिया कबूलनामा लिया गया है, तो आपको तुरंत इसे रिमांड अर्जी के विरोध में रिकॉर्ड पर रखना चाहिए।
शिनाख्त परेड
2005 में दंड प्रक्रिया संहिता में संशोधन के बाद, धारा 54 ए को पेश किया गया है, जिसके तहत अभियुक्तों को शिनाख्त परेड (टीआईपी) में रखा जा सकता है। 2005 से पहले, अभियोजन शिनाख्त परेड के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 9 पर ही निर्भर था। आरोपी शिनाख्त परेड से इनकार कर सकता है, हालांकि इनकार वैध आधार होना चाहिए।
धारा 156 (3) सीआरपीसी का उपयोग
जॉन ने कहा कि जांच की निगरानी के लिए धारा 156 (3) सीआरपीसी के तहत आवेदन दायर किया जा सकता है। अगर आरोपी के पास पुलिस की कहानी के विपरीत अपनी विश्वसनीय कहानी है, तो धारा 156 (3) आरोपी की सहायता कर सकती है।
आगे की जांच
जॉन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने विनुभाई हरिभाई मालवीय बनाम गुजरात राज्य में कहा है कि चार्जशीट पेश होने के बाद मामले की आगे जांच की जा सकती है और आरोपी भी आगे जांच की मांग कर सकता है।
धारा 207 सीआरपीसी का रणनीतिक उपयोग
जॉन ने धारा 207 सीआरपीसी के महत्व को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि यह पहला चरण है, जहां अभियुक्त को कानूनी रूप से अभियोजन के दस्तावेज मिलते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि अभियोजन पक्ष ने सभी दस्तावेज और बयान दे दिए हैं।
जॉन ने सिद्धार्थ वशिष्ठ @ मनु शर्मा बनाम स्टेट ऑफ एनसीटी ऑफ दिल्ली और वीके शशिकला बनाम राज्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का जिक्र करते हुए कहा कि अभियोजन की ओर से सभी दस्तावेज ईमानदारी से दिए जाने चाहिए।
धारा 91 सीआरपीसी का उपयोग
जॉन ने कहा कि यदि आपको अपने बचाव के लिए ऐसी सामग्री की आवश्यकता है, जो अन्यथा नष्ट हो जाएगी, तो धारा 91 सीआरपीसी के तहत अदालत से ऐसे सामग्री को मंगाने की अपील की जा सकती है। आपको अदालत को सामग्री प्रासंगिकता समझानी होगी।
अगला भाग- ट्रायल के दौरान रणनीतियां
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